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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


विट्ठलदास– उसी चिंता में तो दिन-रात पड़ा रहता हूं। इतना बड़ा शहर है, पर तीस रुपए मासिक का प्रबंध नहीं हो सकता। मुझे ऐसा अनुमान होता है कि मुझे मांगना नहीं आता। कदाचित् मुझमें किसी के हृदय को आकर्षित करने की सामर्थ्य नहीं है। मैं दूसरों को दोष देता हूं, पर वास्तव में दोष मेरा ही है। अभी तक केवल दस रुपए का प्रबंध हो सका है। जितने रईस हैं, सबके सब पाषाण हृदय। अजी, रईसों की बात तो न्यारी रही, मि. प्रभाकर राव ने भी कोरा जवाब दिया। उनके लेखों को पढ़ो, तो मालूम होता है कि देशानुराग और दया के सागर हैं। होली के जलसे के बाद महीनों तक आप पर विष की वर्षा करते रहे, लेकिन कल जो उनकी सेवा में गया तो बोले, क्या जाति का सबसे बड़ा ऋणी मैं ही हूं? मेरे पास लेखनी है, उससे जाति की सेवा करता हूं। जिसके पास धन हो, वह धन से करे। उनकी बातें सुनकर चकित रह गया। नया मकान बनवा रहे हैं, कोयले की कंपनी में हिस्से खरीदे हैं, लेकिन इस जातीय काम से साफ निकल गए। अजी, और लोग जरा सकुचाते तो हैं उन्होंने तो उल्टे मुझी को आड़े हाथों लिया।

शर्माजी– आपको निश्चय है कि सुमनबाई पचास रुपए पर विधवाश्रम में चली आएंगी?

विट्ठलदास– हां, मुझे निश्चय है। यह दूसरी बात है कि आश्रम कमेटी उसे लेना पसंद न करे। तब कोई और प्रबंध करूंगा।

शर्माजी– अच्छा, तो लीजिए, आपकी चिंताओं का अंत किए देता हूं, मैं पचास रुपए मासिक देने पर तैयार हूं और ईश्वर ने चाहा तो आजन्म देता रहूंगा।

विट्ठलदास ने विस्मय से शर्माजी की तरफ देखा और कृतज्ञतापूर्वक उनके गले लिपटकर बोले– भाई साहब, तुम धन्य हो। इस समय तुमने वह काम किया है कि जी चाहता है, तुम्हारे पैरों पर गिरकर रोऊं। तुमने हिंदू जाति की लाज रख ली और सारे लखपतियों के मुंह पर कालिख लगा दी। लेकिन इतना बोझ कैसे संभालोगे?

शर्माजी– सब हो जाएगा, ईश्वर कोई-न-कोई राह अवश्य निकालेंगे ही।

विट्ठलदास– आजकल आमदनी अच्छी हो रही है क्या?

शर्माजी– आमदनी पत्थर हो रही है, घोड़ागाड़ी बेच दूंगा, तीस रुपए बचत यों हो जाएगी, बिजली का खर्च तोड़ दूंगा, दस रुपए यों निकल आएंगे, दस रुपए और इधर-उधर से खींच-खांचकर निकाल लूंगा।

विट्ठलदास– तुम्हारे ऊपर अकेले इतना बोझ डालते हुए मुझे कष्ट हो रहा है, पर क्या करूं, शहर के बड़े आदमियों से हारा हुआ हूं। गाड़ी बेच दोगे तो कचहरी कैसे जाओगे? रोज किराए की गाड़ी करनी पड़ेगी?

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