उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
यहां तक कि एक बज गया। जीतन ने गाड़ी लाकर द्वार पर खड़ी कर दी। सदन ने अपने ट्रंक और बिस्तर आदि रख दिए। उस समय सुभद्रा को शर्माजी की याद आई, महरी से बोली– जरा देख तो कहां हैं। बुला ला। उसने बाहर आकर देखा। कमरे में झांका, नीचे जाकर देखा, शर्माजी का पता न था। सुभद्रा ताड़ गई। बोली– जब तक वह न आएंगे, मैं न जाऊंगी। शर्माजी कहीं बाहर न गए थे। ऊपर छत पर जाकर बैठे थे। जब एक बज गया और सुभद्रा न निकली, तब वह झुंझलाकर घर में गए और सुभद्रा से बोले– अभी तक तुम यहीं हो? एक बज गया।
सुभद्रा की आंखों में आंसू भर आए। चलते-चलते शर्माजी की यह रुखाई अखर गई। शर्माजी अपनी निष्ठुरता पर पछताए। सुभद्रा के आंसू पोंछे, गले से लगाया और लाकर गाड़ी में बैठा दिया।
स्टेशन पर पहुंचे, गाड़ी छूटने ही वाली थी। सदन दौड़कर गाड़ी में जा बैठा। सुभद्रा बैठने भी न पाई थी कि गाड़ी छूट गई। वह खिड़की पर खड़ी शर्माजी को ताकती रही और जब तक वह आंखों से ओझल न हुए, वह खिड़की पर से न हटी।
संध्या समय गाड़ी ठिकाने पर पहुंची। मदनसिंह पालकी और घोड़ा लिए स्टेशन पर मौजूद थे। सदन ने दौड़कर पिता के चरण-स्पर्श किए।
ज्यों-ज्यों गांव निकट आता था, सदन की व्यग्रता बढ़ती जाती थी, जब गाँव आध मील दूर रह गया और धान के खेत की मेड़ों पर घोड़े को दौड़ाना कठिन जान पड़ा तो वह उतर पड़ा और वेग के साथ गांव की तरफ चला। आज उसे अपना गांव बहुत सुनसान मालूम होता था। सूर्यास्त हो गया था। किसान बैलों को हांकते खेतों से चले आते थे। सदन किसी से कुछ न बोला– सीधे अपने घर में चला गया और माता के चरण छुए। माता ने छाती से लगाकर आशीर्वाद दिया।
भामा– वे कहां रह गईं?
सदन– आती हैं, मैं सीधे खेतों में से चला आया।
भामा– चाचा-चाची से जी भर गया न?
सदन– क्यों?
भामा– वह तो चेहरा ही कहे देता है।
सदन– वाह, मैं तो मोटा हो गया हूं।
भामा– झूठें, चाची ने दानों को तरसा दिया होगा।
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