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सामाजिक कहानियाँ >> सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8640
आईएसबीएन :978-1-61301-187

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सोज़े वतन यानी देश का दर्द…


यह सुनते ही सरदार नमकख़ोर की हिम्मतें छूट गयीं। अमीर पुरतदबीर बुढ़ापे के बावजूद अपने वक़्त का एक ही सिपहसालार था। उसका नाम सुनकर बड़े-बड़े बहादुर कानों पर हाथ रख लेते थे। सरदार नमकख़ोर का ख़याल था कि अमीर कहीं एक कोने में बैठे खुदा की इबादत करते होंगे। मगर उनको अपने मुक़ाबिले में देखकर उसके होश उड़ गये कि कहीं ऐसा न हो कि इस हार से हम अपनी सारी जीतें खो बैठें और बरसों की मेहनत पर पानी फिर जाये। सब की यही सलाह हुई की वापस चलना ही ठीक है। उस वक़्त शेख मख़मूर ने कहा—ऐ सरदार नमकख़ोर! तूने मुल्के जन्नतनिशाँ को छुटकारा दिलाने का बीड़ा उठाया है। क्या इन्हीं हिम्मतों से तेरी आरजूएँ पूरी होंगी? तेरे सरदार और सिपाहियों ने कभी मैदान से क़दम पीछे नहीं हटाया, कभी पीठ नहीं दिखायी, तीरों की बौछार को तुमने पानी की फुहार समझा और बन्दूकों की बाढ़ को फूलों की बहार क्या इन चीजों से इतनी जल्दी तुम्हारा जी भर गया? तुमने यह लड़ाई सल्तनत को बढ़ाने के कमीने इरादे से नहीं छेड़ी है। तुम सच्चाई और इंसाफ़ की लड़ाई लड़ रहे हो। क्या तुम्हारा जोश इतनी जल्द ठंडा हो गया? क्या तुम्हारी इंसाफ़ की तलवार की प्यास इतनी जल्दी बुझ गयी? तुम खूब जानते हो कि इंसाफ़ और सच्चाई की जीत ज़रूर होगी, तुम्हारी इन बहादुरियों का इनाम खुदा के दरबार से ज़रूर मिलेगा? फिर अभी से क्यों हौसले छोड़ देते हो? क्या बात है, अगर अमीर पुरतदबीर बड़ा दिलेर इरादे का पक्का सिपाही है। अगर वह शेर है तो तुम शेर मर्द हो; अगर उसके सिपाही जान पर खेलने वाले हैं तो तुम्हारे सिपाही भी सर कटाने के लिए तैयार हैं। हाथों में तेग़ा मज़बूत पकड़ो और खुदा का नाम लेकर दुश्मन पर टूट पड़ो तुम्हारे तेवर कहे देते हैं कि मैदान तुम्हारा है।

इस पुरज़ोर तक़रीर ने सरदारों के हौसले उभार दिये। उनकी आँखें लाल हो गयीं, तलवारें पहलू बदलने लगीं और क़दम बरबस लड़ाई के मैदान की तरफ़ बढ़े शेख़ मखमूर ने तब फ़कीरी बाना उतार फेंका, फ़कीरी प्याले को सलाम किया और हाथों में वही तलवार और ढाल लेकर जो किसी वक़्त मसऊद से छीने गये थे, सरदार नमकख़ोर के साथ-साथ सिपाहियों और अफ़सरों का दिल बढ़ाते शेरों की तरह बिफरता हुआ चला। आधी रात का वक़्त था, अमीर के सिपाही अभी मंज़िले मारे चले आते थे। बेचारे दम भी न लेने पाये थे कि एकाएक सरदार नमकख़ोर के आ पहुँचने की ख़बर पायी। होश उड़ गये और हिम्म्तें टूट गयीं। मगर अमीर शेर की तरह गरज कर ख़ेमे से बाहर आया और दम के दम में अपनी सारी फ़ौज दुश्मन के मुकाबले में क़तार बाँधकर खड़ी कर दी कि जैसे एक माली था कि आया और इधर-उधर बिखरे हुए फूलों को एक गुलदस्ते में सजा गया।

दोनों फ़ौजें कराले-काले पहाड़ों की तरह आमने-सामने खड़ी हैं। और तोपों का आग बरसाना ज्वालामुखी का दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। उनकी घनगरज आवाज़ से बला का शोर मच रहा था। यह पहाड़ धीरे-धीरे आगे बढ़ते गये। यकायक वह टकराये और कुछ इस ज़ोर से टकराये कि ज़मीन काँप उठी और घमासान की लड़ाई शुरू हो गयी। मसऊद का तेग़ा इस वक़्त एक बला हो रहा था, जिधर पहुँचता लाशों के ढेर लग जाते और सैकड़ों सर उस पर भेंट चढ़ जाते।

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