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सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8640
आईएसबीएन :978-1-61301-187

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सोज़े वतन यानी देश का दर्द…


सबेरे उठकर देखता हूँ तो बाबू निरंजनदास मेरे सामने कुर्सी पर बैठे हैं। उनके हाथ में डायरी थी जिसे वह ध्यानपूर्वक पढ़ रहे थे। उन्हें देखते ही मैं बड़े चाव से लिपट गया। अफ़सोस, अब उस देवोपम स्वभाव वाले नौजवान की सूरत देखनी न नसीब होगी। अचानक मौत ने उसे हमेशा के लिए हमसे अलग कर दिया। कुमुदिनी के सगे भाई थे, बहुत स्वस्थ, सुन्दर और हँसमुख, उम्र मुझसे दो ही चार साल ज़्यादा थी, ऊँचे पद पर नियुक्त थे, कुछ दिनों से इसी शहर में तबदील होकर आ गये थे। मेरी और उसकी गाढ़ी दोस्ती हो गयी थी। मैंने पूछा—क्या तुमने मेरी डायरी पढ़ ली?

निरंजन—हाँ।

मैं—मगर कुमुदिनी से कुछ न कहना।

निरंजन—बहुत अच्छा, न कहूँगा।

मैं—इस वक़्त किसी सोच में हो। मेरा डिप्लोमा देखा?

निरंजन—घर से ख़त आया है, पिताजी बीमार हैं, दो तीन दिन में जाने वाला हूँ।

मैं—शौक़ से जाइए, ईश्वर उन्हें जल्द स्वस्थ करे।

निरंजन’—तुम भी चलोगे? न मालूम कैसा पड़े, कैसा न पड़े।

मैं—मुझे तो इस वक़्त माफ़ कर दो।

निरंजनदास यह करकर चले गये। मैंने हजामत बनायी, कपड़े बदले और मिस लीलावती से मिलने का चाव मन में लेकर चला वहां जाकर देखा तो ताला पड़ा हुआ है। मालूम हुआ कि मिस साहिबा की तबीयत दो-तीन दिन से ख़राब थी। आबहवा बदलने के लिए नैनीताल चली गयी हैं अफ़सोस, मैं हाथ मलकर रह गया। क्या लीला मुझसे नाराज़ थी? उसने मुझे क्यों ख़बर नहीं दी। लीला, क्या तू बेवफा है, तुझसे बेवफ़ाई की उम्मीद न थी। फ़ौरन पक्का इरादा कर लिया कि आज की डाक से नैनीताल चल दूँ। मगर घर आया तो लीला का ख़त मिला काँपते हाथों से खोला, लिखा था—मैं बीमार हूँ, मेरे जीने की कोई उम्मीद नहीं है, डाक्टर कहते हैं कि प्लेग है। जब तक तुम आओगे, शायद मेरा किस्सा तमाम हो जाएगा। आख़िरी वक़्त तुमसे न मिलने का सख़्त सदमा है। मेरी याद दिल में क़ायम रखना। मुझे सख़्त अफ़सोस है कि तुमसे मिलकर नहीं आयी। मेरा क़सूर माफ करना और अपनी अभागिनी लीला को भुला मत देना। खत मेरे हाथ से छूटकर गिर पड़ा। दुनियाँ आँखों से अंधेरी हो गयी, मुँह से एक ठंडी आह निकली। बिना एक क्षण गँवाये मैंने बिस्तर बाँधा और नैनीताल चलने के लिए तैयार हो गया। घर से निकला ही था कि प्रोफ़ेसर बोस से मुलाक़ात हो गयी। कालेज से चले आ रहे थे, चेहरे पर शोक लिखा हुआ था। मुझे देखते ही उन्होंने जेब से एक तार निकालकर मेरे सामने फेंक दिया। मेरा कलेजा धक् से हो गया। आँखों में अँधेरा छा गया, तार कौन उठाता है। और हाथ मार कर बैठ गया। लीला, तुम इतनी जल्दी मुझसे जुदा हो गयी!

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