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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670
आईएसबीएन :978-1-61301-144

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...

(२५) विदाई

दूसरे दिन बालाजी स्नान-ध्यान से निवृत होकर राजा धर्मसिंह की प्रतीक्षा करने लगे। आज राजघाट पर एक विशाल गोशाला का शिलारोपण होने वाला था, नगर की हाट-बाट और वीथियां मुस्कुराती हुई जान पड़ती थीं। सड़क के दोनों पार्श्व में झण्डे और झणियां लहरा रही थीं। गृहद्वार फूलों की माला पहिने स्वागत के लिए तैयार थे, क्योंकि आज उस स्वदेश-प्रेमी का शुभागमन है, जिसने अपना सर्वस्व देश के हित बलिदान कर दिया है।

हर्ष की देवी अपनी सखी-सहेलियों के संग टहल रही थी। वायु झूमती थी। दुःख और विषाद का कहीं नाम न था। ठौर-ठौर पर बधाइयां बज रही थीं। पुरुष सुहावने वस्त्र पहने इठलाते थे। स्त्रियां सोलह श्रृंगार किये मंगल-गीत गाती थीं। बालक-मण्डली केसरिया साफा धारण किये किलोलें करती थी हर पुरुष-स्त्री के मुख से प्रसन्नता झलक रही थी, क्योंकि आज एक सच्चे जाति-हितैषी का शुभागमन है जिसने अपना सर्वस्व जाति के हित में भेंट कर दिया है।

बालाजी अब अपने सुहृदों के संग राजघाट की ओर चले तो सूर्य भगवान ने पूर्व दिशा से निकलकर उनका स्वागत किया। उनका तेजस्वी मुखमण्डल ज्यों ही लोगों ने देखा सहस्रों मुखों में से ‘भारत माता की जय’ का घोर शब्द सुनाई दिया और वायुमंडल को चीरता हुआ आकाश-शिखर तक जा पहुंचा। घंटों और शंखों की ध्वनि निनादित हुई और उत्सव का सरस राग वायु में गूंजने लगा। जिस प्रकार दीपक को देखते ही पतंगे उसे घेर लेते हैं उसी प्रकार बालाजी को देखकर लोग बड़ी शीघ्रता से उनके चतुर्दिक एकत्र हो गए। भारत-सभा के सवा सौ सभ्यों ने आभिवादन किया। उनकी सुन्दर वर्दियां और मनचले घोड़े नेत्रों में खुबे जाते थे। इस सभा का एक-एक सभ्य जाति का सच्चा हितैषी था और उसके उमंग-भरे शब्द लोगों के चित्त को उत्साह से पूर्ण कर देते थे। सड़क के दोनों ओर दर्शकों की श्रेणी थी। बधाइयां बज रही थीं। पुष्प और मेघों की वृष्टि हो रही थी। ठौर-ठौर नगर की ललनाएं श्रृंगार किए, स्वर्ण के थाल में कपूर, फूल और चन्दन लिए आरती करती जाती थीं। और दूकानें नवागता वधू की भांति सुसज्जित थीं। सारा नगर अपनी सजावट से वाटिका को लज्जित करता था और जिस प्रकार श्रावण मास में काली घटायें उठती हैं और रह-रहकर वन की गरज हृदय को कंपा देती है उसी प्रकार जनता की उमंगवर्द्वक ध्वनि (भारत माता की जय) हृदय में उत्साह और उत्तेजना उत्पन्न करती थी। जब बालाजी चौक में पहुँचे तो उन्होंने एक अद्भुत दृश्य देखा। बालक बृन्द ऊदे रंग के लैसदार कोट पहिने, केसरिया पगड़ी बांधे हाथों में सुन्दर छड़ियां लिये मार्ग पर खड़े थे। बालाजी को देखते ही वे दस-दस की श्रेणियों में हो गये एवं अपने डण्डे बजाकर यह ओजस्वी गीत गाने लगे–

बालाजी तेरा आना मुबारक होवे।

धनि-धनि भाग्य हैं इस नगरी के, धनि-धनि भाग्य हमारे।।

धनि-धनि इस नगरी के बासी जहां तव चरण पधारे।

बालाजी तेरा आना मुबारक होवे।।

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