लोगों की राय

सदाबहार >> वरदान (उपन्यास)

वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670
आईएसबीएन :978-1-61301-144

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

24 पाठक हैं

‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...

(७) निठुरता और प्रेम

सुवामा तन-मन से विवाह की तैयारियां करने लगी। भोर से संध्या तक विवाह के ही धन्धों में उलझी रहती। सुशीला चेरी की भांति उसकी आज्ञा का पालन किया करती। मुंशी संजीवनलाल प्रातःकाल से सांझ तक हाट की धूल छानते रहते। और विरजन जिसके लिए यह सब तैयारियां हो रही थी, अपने कमरे में बैठी हुई रात-दिन रोया करती। किसी को इतना अवकाश न था कि क्षण-भर के लिए उसका मन बहलाये। यहाँ तक कि प्रताप भी अब उसे निठुर जान पड़ता था। प्रताप का मन भी इन दिनों बहुत ही मलिन हो गया था। सवेरे का निकला हुआ साँझ को घर आता और अपनी मुंडेर पर चुपचाप जा बैठता। विरजन के घर न जाने की तो उसने शपथ-सी कर ली थी। वरन जब कभी वह आती हुई दिखाई देती, तो चुपके से सरक जाता। यदि कहने-सुनने से बैठता भी तो इस भांति मुख फेर लेता और रुखाई का व्यवहार करता कि विरजन रोने लगती और सुवामा से कहती– चाची, लल्लू मुझसे रुष्ट है, मैं बुलाती हूं, तो नहीं बोलते। तुम चलकर मना दो। यह कहकर वह मचल जाती और सुवामा का आँचल पकड़कर खींचती हुई प्रताप के घर लाती। परन्तु प्रताप दोनों को देखते ही निकल भागता। वृजरानी द्वार तक यह कहती हुई आती कि-लल्लू तनिक सुन लो, तनिक सुन लो, तुम्हें हमारी शपथ, तनिक सुन लो। पर जब वह न सुनता और न मुंह फेरकर देखता ही तो बेचारी लड़की पृथ्वी पर बैठ जाती और भली-भाँति फूट-फूटकर रोती और कहती– यह मुझसे क्यों रूठे हुए हैं? मैंने तो इन्हें कभी कुछ नहीं कहा। सुवामा उसे छाती से लगा लेती और समझाती– बेटा! जाने दो, लल्लू पागल हो गया है। उसे अपने पुत्र की निठुरता का भेद कुछ-कुछ ज्ञात हो चला था।

निदान विवाह को केवल पांच दिन रह गये। नातेदार और सम्बन्धी लोग दूर तथा समीप से आने लगे। आँगन में सुन्दर मण्डप छा गया। हाथ में कंगन बँध गये। यह कच्चे धागे का कंगन पवित्र धर्म की हथकड़ी है, जो कभी हाथ से न निकलेगी और मण्डप उस प्रेम और कृपा की छाया का स्मारक है, जो जीवनपर्यन्त सिर से न उठेगी। आज संध्या को सुवामा, सुशीला, महाराजिनें सब-की-सब मिलकर देवी की पूजा करने को गयीं। महरियां अपने धंधों में लगी हुई थीं। विरजन व्याकुल होकर अपने घर में से निकली और प्रताप के घर आ पहुंची। चतुर्दिक सन्नाटा छाया हुआ था। केवल प्रताप के कमरे में धुंधला प्रकाश झलक रहा था। विरजन कमरे में आयी, तो क्या देखती है कि मेज पर लालटेन जल रही है और प्रताप एक चारपाई पर सो रहा है। धुंधले उजाले में उसका बदन कुम्हलाया और मलिन नजर आता है। वस्तुएँ सब इधर-उधर बेढंग पड़ी हुई हैं। जमीन पर मानों धूल चढ़ी हुई है। पुस्तकें फैली हुई हैं। ऐसा जान पड़ता है मानो इस कमरे को किसी ने महीनों से नहीं खोला। यह वही प्रताप है, जो स्वच्छता को प्राण-प्रिय समझता था। विरजन ने चाहा उसे जगा दूं। पर कुछ सोचकर भूमि से पुस्तकें उठा-उठा कर अलमारी में रखने लगी। मेज पर से धूल झाड़ी, चित्रों पर से गर्द का परदा उठा लिया। अचानक प्रताप ने करवट ली और उसके मुख से यह वाक्य निकला–  ‘विरजन। मैं तुम्हें भूल नहीं सकता’’। फिर थोड़ी देर पश्चात–  ‘विरजन’। कहां जाती हो, यहीं बैठो? फिर करवट बदलकर–  ‘न बैठोगी’’? अच्छा जाओ मैं भी तुमसे न बोलूंगा। फिर कुछ ठहरकर– अच्छा जाओ, देखें कहां जाती है। यह कहकर वह लपका, जैसे किसी भागते हुए मनुष्य को पकड़ता हो। विरजन का हाथ उसके हाथ में आ गया। उसके साथ ही आँखें खुल गई। एक मिनट तक उसकी भाव शून्य दृष्टि विरजन के मुख की ओर गड़ी रही। फिर वह चौंककर उठ बैठा और विरजन का हाथ छोड़कर बोला– तुम कब आयीं, विरजन? मैं अभी तुम्हारा ही स्वप्न देख रहा था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book