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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670
आईएसबीएन :978-1-61301-144

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


चन्द्रा– दोपहर तो हुई, स्यात् अब न आएंगे।

इतने में कमला और उमादेवी दोनों आ पहुंची। चन्द्रा ने घूंघट निकाल लिया और फर्श पर आ बैठी। कमला उसकी बड़ी ननद होती थी।

कमला– अरे, अभी तो इन्होंने कपड़े भी नहीं बदले।

सेवती– भैया की बाट जोह रही हैं। इसलिए यह भेष रचा है।

कमला– मूर्ख हैं। उन्हें गरज होगी, आप आयेंगे।

सेवती– इनकी बात निराली है।

कमला– पुरुषों से प्रेम चाहे कितना ही करे, पर मुख से एक शब्द भी न निकाले, नहीं तो व्यर्थ सताने और जलाने लगते हैं। यदि तुम उनकी उपेक्षा करो, उनसे सीधे बात न करो, तो वे तुम्हारा सब प्रकार– आदर करेंगे। तुम पर प्राण समर्पण करेंगे, परन्तु ज्यों ही उन्हें ज्ञात हुआ कि इसके हृदय में मेरा प्रेम हो गया, बस उसी दिन से दृष्टि फिर जाएगी। सैर को जाएंगे, तो अवश्य देर करके आयेंगे। भोजन करने बैठेंगे तो मुँह जूठा करके उठ जायेंगे, बात-बात पर रुठेंगे। तुम रोओगी तो मनाएंगे, मन में प्रसन्न होंगे कि कैसा फंदा डाला है। तुम्हारे सम्मुख अन्य स्त्रियों की प्रशंसा करेंगे। भावार्थ यह है कि तुम्हारे जलाने में उन्हें आनन्द आने लगेगा। अब मेरे ही घर में देखो पहिले इतना आदर करते थे कि क्या बताऊं। प्रतिक्षण नौकरों की भांति हाथ बांधे खड़े रहते थे। पंखा झलने को तैयार, हाथ से कौर खिलाने को तैयार यहाँ तक कि (मुस्कुराकर) पांव दबाने में भी संकोच न था। बात मेरे मुख से निकली नहीं कि पूरी हुई।

मैं उस समय अबोध थी। पुरुषों के कपट व्यवहार क्या जानूं। पट्टी में आ गयी। सेवती झूठ न मानना, उसी दिन से उनकी आँखें फिर गयीं। लगे सैर-सपाटे करने। एक दिन रूठकर चल दिए। गजरा गले में, डाले इत्र लगाए आधी रात को घर आए। जानते थे कि आज हाथ बांध कर खड़ी होंगी। मैंने लम्बी तानी तो रात-भर करवट न ली। दूसरे दिन भी न बोली। अंत में महाशय सीधे हुए, पैरों पर गिरे, गिड़गिड़ाये, तब से मन में इस बात की गांठ बाँध ली है कि पुरुषों को प्रेम कभी न जताओ।

सेवती– जीजा को मैंने देखा है। भैया के विवाह में आये थे। बड़े हंसमुख मनुष्य हैं।

कमला– पार्वती उन दिनों पेट में थी, इसी से मैं न आ सकी थी। यहाँ से गये तो लगे तुम्हारी प्रशंसा करने। तुम कभी पान देने गयी थी? कहते थे कि मैंने हाथ थामकर बैठा लिया, खूब बातें हुईं।

सेवती– झूठे हैं, लबारिए हैं। बात यह हुई कि गुलबिया और जमुनी किसी कार्य से बाहर गयी थीं। माँ ने कहा, वे खाकर गये हैं, पान बना के दे आ। मैं पान लेकर गयी, चारपाई पर लेटे थे, मुझे देखते ही उठ बैठे। मैंने पान देने को हाथ बढाया तो आप कलाई पकड़कर कहने लगे कि एक बात सुन लो, पर मैं हाथ छुड़ाकर भागी!

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