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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670
आईएसबीएन :978-1-61301-144

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


जैसे कुमकुमे में गुलाब भरा होता है, उसी प्रकार वृजरानी के नयनों में प्रेम रस भरा हुआ था। वह मुस्कुराई, परन्तु कुछ न बोली।

कमला– मुझ जैसा भाग्यवान मनुष्य संसार में न होगा।

विरजन– क्या मुझसे भी अधिक?

कमला मतवाला हो रहा था। विरजन को प्यार से गले लगा लिया।

कुछ दिनों तक प्रति-दिन का यही नियम रहा। इसी बीच में मनोरंजन की नयी सामग्री उपस्थित हो गई। राधाचरण ने चित्रों का एक सुन्दर अलबम विरजन के पास भेजा। इसमें कई चित्र चंद्रा के भी थे। कहीं वह बैठी श्यामा को पढ़ा रही है कहीं बैठी पत्र लिख रही है। उसका एक चित्र पुरुष वेष में था। राधाचरण फोटोग्राफी की कला में कुशल थे। विरजन को यह अलबम बहुत भाया। फिर क्या था? कमला को धुन लगी कि मैं भी चित्र खींचने का अभ्यास करूं और विरजन का चित्र खींचूँ। भाई के पास पत्र लिख भेजा कि कैमरा और अन्य आवश्यक सामान मेरे पास भेज दीजिये और अभ्यास आरंभ कर दिया। घर से चलते कि स्कूल जा रहा हूँ पर बीच ही में एक पारसी फोटोग्राफर की दूकान पर आ बैठते। तीन-चार मास के परिश्रम और उद्योग से इस कला में प्रवीण हो गए। पर अभी घर में किसी को यह बात मालूम न थी। कई बार विरजन ने पूछा भी; आज-कल दिनभर कहाँ रहते हो। छुट्टी के दिन भी नहीं दिख पड़ते। पर कमलाचरण ने हूं-हां करके टाल दिया।

एक दिन कमलाचरण कहीं बाहर गये हुए थे। विरजन के जी में आया कि लाओ प्रतापचन्द्र को एक पत्र लिख डालूँ; पर बक्स खोला तो चिट्ठी का कागज न था। माधवी से कहा कि जाकर अपने भैया के डेक्स में से कागज निकाल ला। माधवी दौड़ी हुई गयी तो उसे डेस्क पर चित्रों का अलबम खुला हुआ मिला। उसने अलबम उठा लिया और भीतर लाकर विरजन से कहा– बहिन! देखो, यह चित्र मिला।

विरजन ने उसे चाव से हाथ में ले लिया और पहिला ही पन्ना उलटा था कि अचम्भा-सा हो गया। वह उसी का चित्र था। वह अपने पलंग पर चादर ओढ़े निद्रा में पड़ी हुई थी, बाल ललाट पर बिखरे हुए थे, अधरों पर एक मोहनी मुस्कान की झलक थी मानो कोई मन-भावन स्वप्न देख रही है। चित्र के नीचे लिखा हुआ था-‘प्रेम-स्वप्न’। विरजन चकित थी, मेरा चित्र उन्होंने कैसे खिंचवाया और किससे खिंचवाया। क्या किसी फोटोग्राफर को भीतर लाए होंगे? नहीं ऐसा वे क्यों करेंगे। क्या आश्चर्य है, स्वयं ही खींच लिया हो। इधर महीनों से बहुत परिश्रम भी तो करते हैं। यदि स्वयं ऐसा चित्र खींचा है तो वस्तुतः प्रशंसनीय कार्य किया है। दूसरा पन्ना उलटा तो उसमें भी अपना चित्र पाया। वह एक साड़ी पहने, आधे सिर पर आँचल डाले वाटिका में भ्रमण कर रही थी। इस चित्र के नीचे लिखा हुआ था– ‘वाटिका-भ्रमण। तीसरा पन्ना उलटा तो वह भी अपना ही चित्र था। वह वाटिका में पृथ्वी पर बैठी हार गूँथ रही थी। यह चित्र तीनों में सबसे सुन्दर था, क्योंकि चित्रकार ने इसमें बड़ी कुशलता से प्राकृतिक रंग भरे थे। इस चित्र के नीचे लिखा हुआ था– ‘अलबेली मालिन’। अब विरजन को ध्याना आया कि एक दिन जब मैं हार गूँथ रही थी तो कमलाचरण नील के काँटे की झाड़ी से मुस्कुराते हुए निकले थे। अवश्य उसी दिन का यह चित्र खींचा होगा। चौथा पन्ना उलटा तो एक परम मनोहर और सुहावना दृश्य दिखायी दिया। निर्मल जल से लहराता हुआ एक सरोवर था और उसके दोनों तीरों पर जहाँ तक दृष्टि पहुँचती थी, गुलाबों की छटा दिखायी देती थी। उनके कोमल पुष्प वायु के झोकों से लचके जाते थे। इसका ज्ञात होता था, मानो प्रकृति ने हरे आकाश में लाल तारे टाँक दिये हैं। किसी अंग्रेजी चित्र का अनुकरण प्रतीत होता था। अलबम के और पन्ने अभी कोरे थे।

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