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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670
आईएसबीएन :978-1-61301-144

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


प्रेमवती के चले जाने पर विरजन उस गृह में अकेली रह गई थी। केवल माधवी उसके पास थी। हृदय-ताप और मानसिक दुःख ने उसका वह गुण प्रकट कर दिया, जो अब तक गुप्त था। वह काव्य और पद्य-रचना का अभ्यास करने लगी। कविता सच्ची भावनाओं का चित्र है और सच्ची भावनाएँ चाहे वे दुःख की हों या सुख की, उसी समय सम्पन्न होती हैं जब हम दुःख या सुख का अनुभव करते हैं। विरजन इन दिनों रात-रात बैठी भाषा में अपने मनोभावों के मोतियों की माला गूँथा करती। उसका एक-एक शब्द करुणा और वैराग्य से परिपूर्ण होता था। अन्य कवियों के मनों में मित्रों की वाह-वाह और काव्य-प्रेमियों के साधुवाद से उत्साह पैदा होता है, पर विरजन अपनी दुःख कथा अपने ही मन को सुनाती थी।

सेवती को आये दो-तीन दिन बीते थे। एक दिन विरजन से कहा– मैं तुम्हें बहुधा किसी ध्यान में मग्न देखती हूँ और कुछ लिखते भी पाती हूँ। मुझे न बताओगी? विरजन लज्जित हो गयी। बहाना करने लगी कि कुछ नहीं, यों ही जी कुछ उदास रहता है। सेवती ने कहा– मैं न मानूँगी। फिर वह विरजन का बाक्स उठा लायी, जिसमें कविता के दिव्य मोती रखे हुए थे। विवश होकर विरजन ने अपने नय पद्य सुनाने शुरू किये। मुख से प्रथम पद्य का निकलना था कि सेवती के रोएँ खड़े हो गये और जब तक सारा पद्य समाप्त न हुआ, वह तन्मय होकर सुनती रही। प्राणनाथ की संगति ने उसे काव्य का रसिक बना दिया था। बार-बार उसके नेत्र भर आते। जब विरजन चुप हो गयी तो एक समां बँधा हुआ था मानो कोई मनोहर राग अभी थम गया है। सेवती ने विरजन को कण्ठ से लिपटा लिया, फिर उसे छोड़कर दौड़ी हुई प्राणनाथ के पास गयी, जैसे कोई नया बच्चा नया खिलौना पाकर हर्ष से दौड़ता हुआ अपने साथियों को दिखाने जाता है। प्राणनाथ अपने अफसर को प्रार्थना-पत्र लिख रहे थे कि मेरी माता अति पीड़िता हो गयी है, अतएव सेवा में प्रस्तुत होने में विलम्ब हुआ। आशा करता हूँ कि एक सप्ताह का आकस्मिक अवकाश प्रदान किया जाएगा। सेवती को देखकर चट आपना प्रार्थना-पत्र छिपा लिया और मुस्काये। मनुष्य कैसा धूर्त है! वह अपने आपको भी धोखा देने से नहीं चूकता।

सेवती– तनिक भीतर चलो, तुम्हें विरजन की कविता सुनवाऊं, फड़क उठोगे।

प्राण०– अच्छा, अब उन्हें कविता की चाट हुई है? उनकी भाभी तो गाया करती थी– तुम तो श्याम बड़े बेखबर हो।

सेवती– तनिक चलकर सुनो, तो पीछे हँसना। मुझे तो उसकी कविता पर आश्चर्य हो रहा है।

प्राण०– चलो, एक पत्र लिखकर अभी आता हूं।

सेवती– अब यही मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं आपके पत्र नोच डालूंगी।

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