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अंतस का संगीत

अंसार कम्बरी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9545
आईएसबीएन :9781613015858

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मंच पर धूम मचाने के लिए प्रसिद्ध कवि की सहज मन को छू लेने वाली कविताएँ


दोहा अर्द्धसम मात्रिक छंद है। इसमें विषम चरणों में 13-13 और समचरणों में 11-11 मात्रायें होती हैं। इसकी तुक में गुरु-लघु का होना अनिवार्य है। वस्तुत: दोहे की लय को सुनियोजित करने के लिये इसमें मात्राओं के निश्चित क्रम का ध्यान रखना पड़ता है। विषम चरणों में यह क्रम 33232 या 3343 या 4432 तथा समचरणों में 443 या 3323 होना आवश्यक है। शायद इसीलिये इसे दोहा कहते हैं, क्योंकि सम और विषम चरणों में मात्राओं का दोहरा प्रयोग होता है। दोहरा शब्द से ही बाद में दोहा शब्द बना होगा। क्योंकि दोहे के लिए दोहरा शब्द का प्रयोग कई स्थानों पर मिलता है। जैसे 'सतसैया के दोहरे, ज्यों-नावक के तीर'। हिन्दी के अधिकांश छंद विषय और रस के अनुसार ही प्रयुक्त किये जाते हैं। प्रत्येक छंद का अपना अलग रस या विषय निर्धारित होता है। किसी अन्य रस या विषय के लिये उसे प्रयुक्त करने में अटपटा लगता है। लेकिन दोहे के साथ ऐसी बात नहीं है। वह प्रत्येक विषय और रस के अनुरूप ढल सकता है। इसीलिए कहीं भी प्रयुक्त किया जा सकता है। कवियों ने नीति, श्रृंगार, भक्ति, दर्शन, व्यंग्य, अन्योक्ति, प्रकृति वर्णन एवं अन्य अनेक रूपों में दोहों का प्रयोग किया है। इसका कारण शायद यही है कि छंद के अनुशासन में बंधा होने पर भी यह स्वच्छंद है। इसके चार चरणों की 48 मात्राओं को लय के अनुसार कई रूपों में लिखा जा सकता है। इसी आधार पर विद्वानों ने दोहे के 24 भेद किये हैं और उन्हें अलग-अलग नाम दिये हैं। गण या अरकान के थोड़े से परिवर्तन से दोहे की लय को बदल कर ही उसके इतने भेद किये गये हैं।

अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण दोहा छंद का प्रयोग हर युग के कवि ने किया है। यह हिन्दी छंदों में सबसे प्राचीन छंद है। हिन्दी के आदिकाल के कवियों और सूफी-संत कवियों ने तो इसका प्रयोग किया ही है, उससे भी पहले अपभ्रंश और प्राकृत भाषा के कवियों ने भी इसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। नाथ और सिद्ध कवियों की रचनाओं में इसका प्रयोग बहुतायत में हुआ है, इसका कारण शायद यह रहा होगा कि दर्शन की गूढ़ता को इतने सरल ढंग से प्रस्तुत करने के लिये दोहे से अधिक उपयोगी अन्य कोई छंद नहीं होगा। निर्गुण भक्ति धारा के प्रमुख ज्ञानमार्गी कवि संत कबीरदास ने तो इसे ज्ञान की साखी ही बना दिया है।

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