धर्म एवं दर्शन >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
गांधी जी ने कहा, उसका संबंध चर्खे से नहीं, उसका संबंध चित्त से है। तुम स्मरण रखना, जब तुम मूर्छित हो जाओगे तभी धागा टूट जाएगा। धागे को चला रहे हो, चित्त कहीं और चला गया, धागा टूट जाएगा। गांधी जी ने कहा, मैं अमूर्छित कातता हूं। जब कात रहा हूं तक चित्त में और कोई विचार ही नहीं है, बस कातने की क्रिया भर के प्रति जागरूकता रह गयी है और कात रहा हूं। न चित्त कुछ सोच रहा है, न विचार कर रहा है, न कोई स्मृति आ रही है, न कोई भविष्य की और कल्पना बन रही है। बस चर्खे के उस कातते धागे कि अतिरिक्त मेरे चित्त में उस समय कुछ भी नहीं है। सिर्फ धागा कत रहा है और मैं हूं। धागा नीचे जा रहा है और मैं हू, धागा ऊपर जा रहा है और मैं हू। मैं केवल एक देखने वाला मात्र रह गया हूं और धागे की क्रिया चल रही है। क्रिया है और भीतर जागरूकता है इसलिए धागा नहीं टूटता। गांधी जी इसीलिए बाद में अपने चर्खे कातने को प्रार्थना कहने लगे, ध्यान कहने लगे। वह कहने लगे मेरा ध्यान तो चर्खा कातने में ही हो जाता है।
अगर हम बुद्ध महावीर को समझें तो हम हैरान हो जाएगे कि चौबीस घंटे की क्रियाएं ध्यान में उठती हैं। वे जो भी कह रहे हैं वह ध्यान ही होता है। क्रिया कर रहे हैं, चित्त परिपूर्ण शांत है और जागरूक है। हमारा जीवन इस तरह के ध्यान के बिलकुल विपरीत है। हम चौबीस घंटे मूर्च्छा की तलाश कर रहे हैं। चौबीस घंटे हम किसी तरह का इंटाक्सिकेंट खोज रहे हैं--चाहे सिनेमा खोजते हों, चाहे गीत सुनते हों वहा खोजते हों, चाहे ग्रंथ पढ़ते हों, वहां खोजते हों, चाहे मंदिर में जाकर भजन कीर्तन करते हो वहाँ खोजते हों। हम चौबीस घंटे यह खोज रहे हैं कि किसी तरह मैं अपने को भूल जाऊं और इसी को सुख भी कहते हैं। जहाँ-जहाँ हम अपने को भूल जाते हैं, कहते हैं बड़ा सुख आया।
असल में हमें अपना खुद का स्मरण बहुत दुखद है और हमारा होगा, हमारा एक्जिस्टेंस ही दुख है। हम सब पच्चीस रास्ते से खोज रहे हैं। वह रास्ते फिर चाहे कोई भी हों। जहाँ-जहाँ हमको थोड़ी देर को तल्लीनता आ जानी है, हम अपने को भूल जाते हैं। वही हमको सुख मालूम होता है। ध्यान तो हमारा बिलकुल विपरीत। ध्यान का कहना है, जहाँ-जहाँ हमें तल्लीनता है, वही-वही हम मूर्छित हैं। किसी में तल्लीन नहीं होता है, समस्त के प्रति जागरूक होना है।
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