धर्म एवं दर्शन >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
तीन साल बाद लोग गए। उस बूढे को तो पहचानना मुश्किल हो गया। वह तो एक पहाडी किनारे खड़े होकर मुर्गे की आवाज, उससे निकल रही थी। उन्होंने उसे जाकर हिलाया और कहा, यह क्या हो गया? आपसे मुर्गे की आवाज निकल रही है? उस बूढ़े ने कहा, आ गया पकड़ में मुर्गा। इन तीन सालों में सब शब्द छोड़ दिए थे। इन तीन सालों में मुर्गे को मैं जानता हूं, यह खयाल छोड़ दिया। डूब गया उसके साथ, एक हो गया। अब चलता हूं। राजा के दरबार में जाकर खड़ा हुआ और उसने मुर्गे की आवाज में बाग दी। राजा ने कहा, पागल हो गए हो मालूम होता है। हमने बुलाया था चित्र, तुम मुर्गा बन जाओ नहीं कहा था। चित्र कहां है?
उस कलाकार ने कहा, चित्र तो अब एक क्षण की बात है। सामान बुला लें, मैं चित्र यहीं बना दूंगा। लेकिन अब मैं जानकर लौटा हूं कि मुर्गा भीतर से क्या है, कैसा है। मैं उसके साथ एक होकर लौटा हूं। क्षण भर भी नहीं लगा। सामान आया और उसने चित्र, बनाकर सामने रख दिया। हाथ उठा कर लकीर खींच देनी थी। और राजा ने कहा, एक मुर्गा ले आओ। मुर्गा आया, दरवाजे पर ही उसने देखा कि चित्र है। उसने खड़े होकर युद्ध के भास से खड़ा हो गया। मुर्गे ने पहचान लिया कि सामने एक मुर्गा है। राजा ने कहा, जीत गए तुम। मापदंड पूरा हो गया। मैं तो सोचता था कि मुर्गा क्या पहचानेगा कि चित्र मुर्गे का है।
ये जो हमारे शब्द हैं--गुलाब का फूल, जूही का फूल, सूरज, पत्नी, बेटा, मां, बाप ये शब्द बीच में खड़े हो जाते हैं और फिर किसी से भी एक नहीं होने देते। दूसरों की बात तो अलग, यह आत्मा हूं मैं, परमात्मा हूं मैं, ब्रह्मा हूं, अहं ब्रह्मास्मि, ये शब्द बीच में खड़े हो जाते हैं। स्वयं से भी एक नहीं होने देते। जिससे हम एक हैं, उससे भी बीच में दीवार खड़ी कर देते हैं। विचारक शब्दों का धनी होता है, और इसलिए विचारक सत्य को कभी नहीं जान पाता। सत्य को वे जान पाते हैं--स्वयं के सत्य को--मैं कौन हूं, इस जीवन की प्राथमिक समस्या को वे लोग जान पाते हैं जो सारे शब्दों को छोड़कर निःशब्द में प्रवेश करते हैं।
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