धर्म एवं दर्शन >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
|
10 पाठकों को प्रिय 353 पाठक हैं |
ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
समग्रता
धर्म हमारा सर्वग्राही नहीं है। वह जवान को आकर्षित ही नहीं करता है। जब आदमी मौत के करीब पहुँचने लगे तभी हमारा धर्म उसको आकर्षित करता है। इसका मतलब यही है कि धर्म हमारा मृत्योन्मुखी है। मृत्यु के पार का विचार करता है, जीवन का विचार नहीं करता है। तो जो लोग मृत्यु के पार जाने की तैयारी करने लगे वे उत्सुक हो जाते हैं। ठीक है उनका उत्सुक हो जाना। उसके लिए भी धर्म होना चाहिए। धर्म में मृत्यु के बाद का जीवन भी सम्मिलित है लेकिन इस पार का जीवन भी सम्मिलित है और उसकी कोई दृष्टि नहीं है।
और ऐसे ही मैं मान नहीं सकता कि बच्चों के लिए वही धर्म काम का हो सकता है जो बूढ़ों और वृद्धों के लिए है। बच्चों का तो जो धर्म होगा वह इतना गंभीर नहीं हो सकता है। वह तो खेलता, कूदता, हंसता हुआ होता है। बच्चों का ऐसा धर्म चाहिए जो उनको खेलने के साथ धर्म आ जाए, वह उनकी प्लेफुलनेस का हिस्सा हो। वह मंदिर में जाते हैं और बच्चे, वह तो वहां भी शोर-गुल करना चाहते हैं। हम उनको डांटकर चुप बैठा देते हैं। और उसका परिणाम यह होता है कि बच्चों को यह समझ में ही नहीं आता है कि क्यों कर दबाया जा रहा है, क्योंकि चुप किया जा रहा है, और बचपन से ही मंदिर कोई अच्छी जगह नहीं है, यह भाव पैदा होता है बच्चों मन में। वहां कोई खेलना है, कूदना है, आनंदित होना है--वह नहीं है वहां।
फिर जवान आदमी को भी धर्म कुछ ऐसा मालूम पड़ता है वह जीवन-विरोधी है। न वहां प्रेम की आज्ञा देता है, न वहां काम की तृप्ति के लिए कोई विचार और दृष्टि देता है। न वह शरीर के सौंदर्य और शरीर के रस के लिए संभावना देता है। और जवान के पूरे प्राणों में भी जो पुकार है वह सौंदर्य की है प्रेम की है, धर्म उसकी पुकार को किसी तरह कोई उतर नहीं देता, कोई रिस्पोंस नहीं देता। तो वह सिनेमा जाता है, वह वहां जाता है जहां उसको उत्तर मिल सकता है। और वह सब गलत उत्तर है। मरो कहना है, मंदिर से उत्तर मिलना चाहिए। मगर वह हम मंदिर न बना सके जो सारे जीवन को घेरता हो, न वह हम धर्म खड़ा कर सके।
तो इधर तो मेरी पूरी चिंतन बस बात पर लगी हुई है कि हम जीवन के पहले दिन से लेकर अंतिम विदा के क्षण तक समग्र जीवन को उसके आमूल, इकट्ठे रूप में सोचें और सारी चीजें जो जीवन में हैं वे धर्म के संबंध में हों। तो मुझे दिखायी पड़ रहा है कि एक तरह की धार्मिक चिंतना सारे जगत में और सारे मनुष्य के लिए उपयोग हो सके। उसमें सेक्स के लिए बहुत अनिवार्य जगह बनानी पड़ेगी। अभी तो कोई जगह ही नहीं है।
|