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अंतिम संदेश

खलील जिब्रान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9549
आईएसबीएन :9781613012161

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विचार प्रधान कहानियों के द्वारा मानवता के संदेश

और उसने करीमा की ओर देखा, ऐसी दृष्टि से जिसमें इस संसार के अलावा और बहुत से संसार दिखाई पड़ते थे, और उसने कहा, "मेरी बहन और मेरी प्रिये, वह तो हो चुका, समय के आरम्भ से ही। भोजन औऱ मदिरा तो तैयार है, कल के लिए, जैसे कि बीते कल के लिए थी, औऱ आज के लिए भी।"

“मैं जाता हूं, लेकिन अगर मैं एक सत्य को लेकर चला जाऊंगा, जिसे अभी तक आवाज नहीं मिली है, वही सत्य फिर मुझे खोजेगा और इकट्ठा कर लेगा, चाहे मेरे समस्त तत्त्व अनन्त खामोशी में बिखरे पडे़ हों। और फिर मुझे तुम्हारे सामने आना होगा, जिससे कि मैं उस वाणी द्वारा बोल सकूं, जोकि उन असीम खामोशियों के हृदय में फिर से उत्पन्न हुई है।”

"और यदि जरा-सी भी सुन्दरता रह जायगी, जिसे कि मैंने तुम्हें नहीं बताया है, तो मुझे फिर पुकार लिया जायगा, हां, मेरा-स्वयं का नाम लेकर ही -अलमुस्तफा। और मैं तुम्हें एक संकेत दूंगा, जिससे कि तुम समझ जाओगे कि मैं जो कुछ छूट गया था, उसे बताने के लिए फिर से आ गया हूं क्योंकि ईश्वर अपने को मनुष्य के हृदय की गुफाओं में ढके रखना नहीं चाहेगा।”

"मैं मौत के बाद भी जीऊंगा और मैं तुम्हारे कानों में गाऊंगाः
विशाल समुद्र की लहर के बाद भी, जो वापस ले जायेगी,
मैं तुम्हारे आसन पर बैठूंगा, हालांकि बिना शरीर के,
औऱ मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे खेतों में जाऊंगा,
एक अदृश्य आत्मा बनकर।
मैं तुम्हारे पास तुम्हारे आग के सहारे बैठूंगा,
एक अदृश्य अतिथि बनकर।
मौत तो कुछ भी नहीं बदलती, परदे के अलावा,
जोकि हमारे चेहरे पर पडा़ रहता है।
बढ़ई फिर भी एक बढ़ई ही रहेगा,
हलवाहा फिर भी एक हलवाहा ही रहेगा,
औऱ वह जोकि वायु के लिए गीत गाता है,
फिर भी गतिशील ग्रहों लिए गायगा।"

औऱ शिष्य ऐसे खामोश हो गए जैसे कि पत्थर, और अपने हृदयों में सिसकने लगे, क्योंकि उसने कहा था, "मैं जाता हूं।" किन्तु किसी ने भी प्रभु को रोकने के लिए अपना हाथ बाहर नहीं निकाला, और न कोई उसके पदचिन्हों पर आगे बढा़।

औऱ अलमुस्तफा अपनी मां के बगीचे से बाहर निकल आया। उसके पैर तेजी से आगे बढ़ रहे थें। तेज हवा में उड़ती हुई पत्ती की भांति वह उनसे दूर चला गया और उन्होंने देखा, मानो एक पीला प्रकाश ऊंचाई पर चढ़ रहा हो। औऱ वे नौ-के-नौ सड़क पर अपने-अपने रास्ते पर चल पड़े। किन्तु करीमा अभी भी गहरी होती रात में खडी़ रही और उसने देखा कि किस प्रकार प्रकाश तथा तारों की जगमगाहट एक हो जाती है; और अपनी बेबसी और तनहाई को उसने ये शब्द कहकर ढांढ़स बंधाया, "मैं जाता हूं लेकिन अगर मैं एक सत्य को लेकर चला जाऊंगा, जिसे अभी तक आवाज नहीं मिली है, तो वही सत्य फिर मुझे खोजेगा और इकट्ठा करेगा, औऱ मैं फिर आऊंगा।"

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