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उपन्यास >> अपने अपने अजनबी

अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550
आईएसबीएन :9781613012154

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना


कहीं पॉल भी क्रिसमस मना रहा होगा - कहाँ, किसके साथ? अपने खुले गले से गा रहा होगा - क्या वह भी इस समय मुझे याद करेगा - मुझे जिसके साथ ही इस बर्फिस्तान में अकेला होने वह आया था - नथुने फुलाकर खुली बर्फीली हवा को पीने, और पीते-पीते अनुभव करने कि हमारे भीतर कैसी स्निग्ध गरमाई है - स्निग्ध, मधुर, स्फूर्तिमय और - हमारी...

पर वह बर्फिस्तान के ऊपर है। खुली हवा में, न जाने किसके साथ; और मैं - यहाँ हूँ, बर्फिस्तान के नीचे, घुटन में, और मेरे साथ हैं वह, वह, वह...

9


25 दिसम्बर :

वहीं पलँग पर बैठ और मेज पर सिर टेके मैं सो गयी थी - शायद पहले थोड़े आँसू आँखों में चुभे थे धुएँ की तरह, फिर न जाने कब ऊँघ गयी थी, फिर चौंककर जागी थी गाने की आवाज सुनकर : घड़ी देखी थी तब डेढ़ बजा था। सेल्मा धीरे-धीरे गा रही थी - गुनगुनाहट से कुछ ही ऊँचे स्वर से - देव-शिशु के आविर्भाव की खुशी का एक गान। वह बहुत देर पहले से गाती रही हो, ऐसा तो नहीं लगा - शायद बीच-बीच में गाती भी रही हो - नींद उसे न आती होगी और घड़ी तो उसके पास है नहीं...

उस सन्नाटे में, रुक-रुककर आता हुआ बूढ़ा गान सुनकर न जाने कैसा लगने लगा। बीच-बीच में बुढ़िया की आवाज मानो टूट जाती - मानो वह हाँफ रही हो, मानो उसकी बूढ़ी साँस उखड़ रही हो। फिर वह आवाज के साथ एक जोर की साँस खींचकर फिर गाना शुरू कर देती और थोड़ी देर बाद मानो एक कराह-सी में तान फिर टूट जाती।

सूना कमरा मानो किसी दबाव में घुटने लगा। मैं उठ बैठी और नंगे पाँव ही धीरे-धीरे बुढ़िया के पलँग के पास गयी।

बुढ़िया उकड़ूँ बैठी थी। होंठों की गति के सिवा किसी गति के लक्षण उसकी देह में नहीं जान पड़ते थे। उसे देखती हुई मैं भी उसके कन्धे की ओट निश्चल खड़ी रही, लेकिन न जाने कैसे उसे ज्ञात हो गया कि कमरे में दूसरा कोई है - दूसरा कोई क्या, कि मैं हूँ -और उसने बिना मुड़े हुए ही कहा, 'मैं अवतरण का गीत गुनगुना रही थी - बचपन की याद से - लेकिन मैंने क्या तुम्हें जगा दिया?'

मैंने कहा, 'नहीं, आंटी, मुझे नींद नहीं आ रही थी कि तभी मैंने आवाज सुनी और देखने चली आयी - शायद कुछ जरूरत हो!'

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