उपन्यास >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
86 पाठक हैं |
अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना
यह नहीं कि मैं कब्र में रहना चाहती हूँ। यह नहीं कि मैं अकेली अलग होना चाहती हूँ। शायद यह भी नहीं कि मैं नहीं चाहती कि वह भी कभी इस कब्र-घर से बाहर निकले। लेकिन मैं जानती हूँ कि उसके बारे में मेरे कुछ भी चाहने या न चाहने से कुछ नहीं होता है। मैं ही नहीं, वह भी यह जानती है।
और ठीक यहीं पर फर्क है। वह जानती है और जानकर मरती हुई भी जिए जा रही है। और मैं हूँ कि जीती हुई भी मर रही हूँ और मरना चाह रही हूँ...
उसमें किसी तरह का विरोध नहीं है - न मेरे प्रति, न मेरे हिंस्र भावों के प्रति, न मृत्यु के ही प्रति। और यह मेरी समझ में नहीं आता, मुझे स्वीकार नहीं होता। कैसे कोई जीता हुआ प्राणी जिजीविषा से परे हो सकता है? हम सब कुछ में अनासक्त हो सकते हैं, पर जीवन से कैसे हो सकते हैं? कहीं-न-कहीं जरूर बुढ़िया में कोई झूठ है। कोई आत्म-प्रवंचना है। हो सकता है कि वह गहरे में छिपी हो - लेकिन यह नहीं हो सकता है कि वह हो ही न।...
उसकी बीमारी शायद दिन-दिन बढ़ती जा रही है, वह कुछ खाती नहीं है और लगभग पीती भी नहीं है, और दिन-ब-दिन अधिक विवर्ण और पारदर्शी होती जाती है। जीता-जागता प्रेत। इसमें भी शायद उतना विरोधाभास नहीं है - लेकिन ठोस प्रेत! और उससे से अधिक अस्वीकार्य और असंग है उस ठोस प्रेत का कारुण्य भाव - एक बाहर को बहता हुआ सबकुछ को सहलाता हुआ कारुण्य! प्रेत किसी पर तरस कैसे कर सकता है? बल्कि प्रेत होता वही है जो अपने पर तरस खाते हुए मरता है - नहीं तो प्रेत-योनि में कोई जा ही नहीं सकता! प्रेत होने के लिए अतृप्त वासना या आकांक्षा काफी नहीं है। ऐसे अतृप्त तो दुनिया में सभी मरते हैं, तो क्या सभी प्रेत हो जाते हैं? लेकिन जो अतृप्त आकांक्षा अपने ही पर तरस खाने की प्रवृत्ति पैदा करती है, जिसमें पैदा करती है, वही प्रेत होता है। लेकिन बुढ़िया की दया अपनी ओर मुड़ी हुई नहीं है। और कभी-कभी मुझे लगता है कि वह प्याला-तश्तरी भी उठाती है, या कि आग की ओर हाथ बढ़ाती है, तो मानो इन निर्जीव चीजों को भी दुलारती और असीसती है। आग को असीसती है - वह, जिसे आग को देखकर रिरियाना चाहिए क्योंकि अभी उसके भीतर की आग बुझ जाएगी और वह हो जाएगी - क्या? राख - राख से भी कम। उसे देखते-देखते मेरा मन होता है कि जोर से चीखूँ, कि जलती हुई लकड़ी उठाकर उसकी कलाइयों पर दे मारूँ जिससे उसका आग को असीसने का दुस्साहस करनेवाला हाथ नीचे गिर जाए - एकाएक जिसके सदमे से उसकी हृद्गति बन्द हो जाए।
|