उपन्यास >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना
मैं हाथों के ऊपर थोड़ा और झुक गयी। मुझे याद आया, बुढ़िया कहती थी, धूप निकलकर आये तो अच्छा है... लेकिन मरे हुए गोश्त को इससे क्या कि धूप है या नहीं है - सिवा इसके कि धूप होगी तो सड़न होगी?
क्या ये हाथ - ये समर्थ और कर्मठ हाथ, जिसमें एक स्वतन्त्र इच्छा और कारक शक्ति है, मेरे ही हाथ हैं? क्योंकि उन पर झुका हुआ जो व्यक्ति इतनी पास से उन्हें देख रहा है वह व्यक्ति 'मैं' नहीं है। कितनी पास हैं बुढ़िया की मुँदी हुई पलकें - क्या उनके नीचे जो आँखें छिपी हुई हैं वे बुढ़िया की ही हैं, या मेरी, या -
लेकिन वे आँखें अपलक खुली थीं और बुढ़िया एकटक मुझे देख रही थी। उसने जरा भी हिले-डुले बिना कहा, 'मेरा तो खुद कई बार मन हुआ कि तुमसे कहूँ, मेरा गला घोंट दो - कहने का साहस नहीं हुआ। लेकिन तुम रुक क्यों गयीं?'
एक बड़ी लम्बी चीख मेरे मुँह से निकल गयी और मैं दौड़कर अपने बिस्तर में घुस गयी। फिर काफी देर बाद मुझे लगा कि मैं रो रही हूँ। लेकिन मेरी आँखों में बिलकुल आँसू नहीं थे। सिर्फ ठठरी बेतरह काँप रही थी।...
न जाने कैसी सोयी और कैसे जागी। जो हुआ था उसके बाद सवेरा कैसे हो सकता है, मैं नहीं सोच सकती थी। और बुढ़िया के सामने मैं कैसे जा सकती हूँ, यह तो सवाल भी मैं अपनी कल्पना के सामने नहीं ला पा रही थी। लेकिन जब मैंने बैठक में झाँका तो वहाँ कोई नहीं था। मैं दबे-पाँव रसोई में गयी। मैंने नाश्ता तैयार किया और वहीं खा भी लिया। फिर एक तश्त में कहवा रखकर बुढ़िया के कमरे में गयी। वह पलँग पर निश्चल पड़ी थी। मैं न जान सकी कि वह सोयी है या जाग रही है। और शायद उसने जान-बूझकर ही आँखें नहीं खोलीं। मुझे इसमें सुविधा ही थी - मैंने तश्त पलँग के पास ही तिपाई पर रख दिया और बाहर चली आयी।
दोपहर हो गयी थी जब उसने दुर्बल स्वर में मुझे पुकारा। मैं उसके कमरे में गयी और उसके सिरहाने खड़ी हो गयी, जहाँ वह मुझे न देख सके - या कम-से-कम मुझे उससे आँखें न मिलानी पड़े। लेकिन उसने ठोड़ी ऊँची करके और पलकें चढ़ाकर मेरी ओर देखते हुए कहा, 'योके, थोड़ी देर मेरे पास आकर बैठ सकती हो? मुझे तुमसे बातें करनी हैं। और आज उठ नहीं पा रही हूँ।'
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