उपन्यास >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना
सेल्मा देर तक बैठी उस टीन को देखती रही। उस देखने-देखने में उसने दो-तीन जीवन जिये और मरे। मानो कोई दूसरा होकर दो-तीन बार वह जियी और मरी, और फिर मानो अपने आपमें लौट आयी, परायी और अनपहचानी होकर। और एक बार उसने कुछ ऐसे ही भाव से अपने हाथ-पैरों और अपने घुटनों की ओर देखा भी - मानो पूछ रही हो कि क्या ये उसी के हैं - कि क्या वह है?
हवा के झोंके से किवाड़ झूला और बन्द होकर फिर खुल गया। सेल्मा खिड़की बन्द करने के लिए उठी। खिड़की बन्द करके दरवाजा भी बन्द करने लगी; पर फिर दोनों दरवाजे उसने पूरे खोल दिये। बरामदे से लौटकर भीतर गयी। एक कागज पर उसने धीरे-धीरे यत्नपूर्वक सँवारकर कुछ लिखा और उसे तह करके जेब में डाला, फिर अलमारी में से खाने को कुछ और सामान निकालकर बरामदे में आयी और चौकी पर रखा हुआ टीन भी उठाकर बाहर निकलकर यान की दुकान की ओर बढ़ गयी।
यान दुकान के बाहर ही बैठा था और पानी की ओर देख रहा था। सेल्मा ने सब चीजें उसके सामने रखते हुए कहा, 'तुम मुझे न्यौता देने आये थे; वह मुझे स्वीकार है। मैं दो तश्तरियाँ भी लायी हूँ - एक में मेरे लिए परोस दो।'
यान थोड़ी देर उसकी ओर स्थिर दृष्टि से देखता रहा। क्षण-भर सेल्मा को लगा कि वह इनकार कर देनेवाला है। फिर उसने चुपचाप तश्तरी उठायी और टीन में से गोश्त परोसने लगी। फिर उसने कहा, 'यह क्या है?'
'यह मेरी ओर से भी है - इसका भी साझा होना चाहिए।'
थोड़ी झिझक के बाद यान ने कहा, 'तो तुम्हीं परोस दो।'
सेल्मा अभी कुछ डाल ही रही थी उसने टोक दिया। 'बस-बस।'
सेल्मा ने पूछा, 'यहीं बैठकर खा सकती हूँ?'
यान ने कुछ अस्पष्ट वक्रभाव से कहा, 'पुल कोई मेरा थोड़े ही है?'
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