उपन्यास >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना
जगन्नाथन् ने सीधे होते हुए कहा, 'मैं डॉक्टर बुला लाऊँ?'
'नहीं-नहीं ! अब कोई फायदा नहीं है।' उसने कहा, 'अब मुझे छोड़कर मत जाओ। यही तो मैंने चुना है।' फिर मानो कुछ सोचकर उसने जोड़ दिया, 'लेकिन, हाँ दूसरे लोग भी तो होंगे लेकिन उनसे मैं अपने आप कह दूँगी। पर तुम जाओ नहीं!'
क्षीणतर होती हुई उस आवाज में भी अनुरोध की एक तीव्रता आ गयी।
जगन्नाथन् वहाँ से जा नहीं सका। लेकिन वहीं मुड़कर उसने जोर से आवाज लगायी, 'कोई है - मदद चाहिए - कोई है?' फिर स्त्री की ओर उन्मुख होकर उसने पूछा, 'क्या कह दोगी?'
'कह दूँगी कि मैंने चुना, स्वेच्छा से चुना। सब कुछ कह दूँगी। सारी हरामी दुनिया को बता दूँगी कि एक बार मैंने अपने मन से जो चुना वही किया ! हरामी-हरामी दुनिया! नाथन् - अच्छे आदमी - मुझे माफ कर दो!'
जगन्नाथन् बड़े असमंजस में था। एक बार मुड़ता कि सहायता के लिये दौड़े, फिर उस स्त्री की ओर देखता जिसका अनुरोध - शायद अन्तिम अनुरोध - था कि वह उसे छोड़कर न जाए। फिर उसे ध्यान आता कि औरत शायद पूरे होश में भी नहीं है, जानती भी नहीं कि क्या कह रही है, और शायद इतना बोध भी नहीं रखती कि वह उसके पास खड़ा है। लेकिन अगर उसे बोध नहीं है तो जगन्नाथन् को तो है कि उसने क्या माँगा था! और शायद जगन्नाथन् का कर्तव्य यही है कि वह जो कुछ कह रही है उसका साक्षी हो अगर वह प्रलय भी है तो भी उसका साक्षी हो - क्योंकि शायद वही उस स्त्री के पास और कहने को रह गया है। और शायद वही कहना ही वह सारवस्तु है जिसके लिए वह जैसा भी जीवन जिया है...
स्त्री फिर रुक-रुककर कुछ कहने लगी। 'कह दो - सारी हरामी दुनिया से कह दो, अन्त में मैं हारी नहीं - अन्त में मैंने जो चाहा सो किया - मरजी से किया। चुनकर किया। मैं - मरियम - ईसा की माँ - ईश्वर की माँ मरियम - जिसको जर्मनों ने वेश्या बनाया -'
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