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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

वहाँ राजधानी में उसके बचपन का एक मित्र, उसके साथ पढ़ा हुआ मित्र रहता था। उसने सुनी प्रशंसा अपने इस मित्र की। वह उसके दर्शन को गया। मन में उसके संदेह जरूर था कि वैसा क्रोधी व्यक्ति--कहीं यह सब क्रोध का ही रूपांतरण न हो यह जो इतनी, इतनी तीव्र तपश्चर्या चल रही है, यह कहीं क्रोध का ही रूप न हो, यह कहीं क्रोध खुद पर ही न लौट आया हो, यह कहीं क्रोध धार्मिक न बन गया हो?

क्रोध धार्मिक बन गया था। उसके मन में शक तो था। वह पहुँचा। सोचा था कि शायद अगर मित्र सचमुच में ही साधु हो गया होगा तो कम से कम मुझे पहचान लेगा। बचपन में वर्षों वे साथ रहे थे। लेकिन जो लोग भी अहंकार की सीढ़ियां चढ़ जाते हैं, वे फिर किसी को भी पहचानते नहीं। सभी उनको पहचानें, यह तो वे चाहते हैं। लेकिन किसी को उन्हें न पहचानना पडे, ऐसा वे कभी नहीं चाहते हैं। क्योंकि जो किसी को पहचानता है, वह छोटा हो जाता है। और जो सबसे पहचाना जाता है, सब जिसे रिकग्नाइज करते हैं, वह बड़ा हो जाता है।

देख तो लिया मित्र को उसने, लेकिन पहचाना नहीं। कौन पद पर पहुँचे लोग मित्रों को कब पहचानते हैं, मित्र पास जाकर बैठ गया चरणों में। शक तो मित्र को हुआ कि मुझे पहचान तो उन्होंने लिया है, क्योंकि वे तिरछी-तिरछी आँख से देखकर इधर-उधर देखने लगते थे। क्योंकि न पहचाना होता तो बार-बार देखने की उस तरफ जरूरत भी न थी। और देखने से बच भी रहे थे, उसकी भी कोई जरूरत न थी।

उस मित्र ने पूछा कि क्या महाराज मैं पूछ सकता हूँ आपका नाम? महाराज ने कहा, मेरा नाम। अखबार नहीं पढ़ते हो, रेडियो नहीं सुनते हो। मेरा नाम कौन है जो नहीं जानता। लेकिन फिर भी तुम पूछते हो। मेरा नाम है मुनि शांतिनाथ।

कहने से ही मित्र को खयाल आ गया कि शांति कितनी उपलब्ध हुई होगी। लेकिन दो-चार मिनट शांतिनाथ आत्मा-परमात्मा की बातें करते रहे। फिर दो-चार मिनट के बाद उस मित्र ने पूछा कि मुनि जी क्या मैं पूछ सकता हूँ, आपका नाम क्या है, मुनि जी तो हैरान हो गए। हद हो गई। अभी इसने पूछा। बताया। कहा कि सुनते हो या कि बहरे हो, कहा मैंने मुनि शांतिनाथ।

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