धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
वह फकीर बोला, भगवांन! एक पास पडी लकड़ी उठाकर, वह जल गई मूर्ति की राख में टटोलने लगा। उस पुजारी ने पूछा, क्या खोजते हो उसने कहा, भगवांन की अस्थियां खोज रहा हूँ। वह पुजारी बोला, निरे पागल हो। लकड़ी की मूर्ति में कहाँ अस्थियां? उस फकीर ने कहा, फिर रात अभी बहुत बाकी है, और सर्द भी बहुत है, एक मूर्ति और उठा लाओ, अंदर तीन मूर्तिया अभी और रखी हैं, सुबह तक तीन मूर्तियां काम दे देंगी।
वह जो पुजारी था घबड़ाया। लेकिन एक सत्य का उसे पहली दफा दर्शन हुआ। अगर लकड़ी की मूर्ति में अस्थियां नहीं होती--यह पागलपन है तो लकड़ी की मूर्ति में भगवांन कहाँ हो सकते हैं--वह भी पागलपन है। लेकिन इसे दिखाने को चोट बड़ी भारी करनी पड़ी। जो कौमें भयभीत हो जाती हैं चोट करने से भी--चिंतन के लिए भी चोट करने से--वे कौमें मर जाती हैं। जो आदमी चिंतन के लिए भी भयभीत हो जाता है और नपीतुली बातें करने लगता है--घेरे के भीतर, मर्यादा में, उसके भीतर प्राणों की ऊर्जा ऊपर उठनी बंद हो जाती है। जिन्हें मार्ग तय करना है, उन्हें तो बहुत सी चोटों के लिए तैयार होना चाहिए। यह मन बहुत कमजोर है जो छोटी-छोटी चोटों से इतना घबड़ा जाए। और हम छोटी-छोटी बातों से इतने भयभीत हो जाते हैं, जिसका कोई भी हिसाब नहीं। और पीछे छिपे प्रेम के भी दर्शन हमें नहीं हो पाते।
क्या कोई यह कह सकता है कि जिसने यह मूर्ति जला दी भगवांन बुद्ध की--यह आदमी कठोर था, यह आदमी प्रेमपूर्ण नहीं था जो जानते हैं, वे कहेंगे इस पुजारी के प्रति इससे बडे प्रेम की और कोई, और कोई अभिव्यक्ति नहीं हो सकती थी। इस पुजारी को जगाना जरूरी था कि तू जिसे पूज रहा है, वह लकड़ी से ज्यादा नहीं है। अगर खोजना ही है उसे, जो जीवन जो जीवन है, जो जीवन-चेतना का केद्र है तो मूर्तियों में उसे नहीं खोजा जा सकता। और जो उसे एक मूर्ति में खोजने बैठ जाता है, वह उसके चारों तरफ जो अनेक रूपों में अभिव्यक्ति हो रही है, उससे वंचित हो जाता है।
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