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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

शब्दों को समझने के लिए, विचारों को समझने के लिए एक बड़ा शांत, मौन, सुनने वाला मन चाहिए। वह हमारे पास नहीं है। हम पहले से ही बहुत भरे हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आप मुझे सुन रहे हैं--जरूरी नहीं है आप मुझे सुन रहे हो। आप अपने को ही अपने भीतर सुन रहे होगे। मेरी बातें भी सुनाई पड़ती हैं बीच-बीच में, फिर आप अपनी बातें सुनने लगते हैं, फिर मेरी बातें सुनाई पड़ती हैं, और इस सबमें इतना घाल-मेल, इतना कनफ्यूजन पैदा हो जाता है कि जो आप मुझसे पूछते हैं, अच्छा होता कि अपने से ही पूछ लेते।

क्योंकि अक्सर जो बातें मैंने नहीं कही, उन्हीं के बाबत प्रश्न पूछ लिए जाते हैं। या जो मैंने समझाया, उसके ही बाबत फिर किसी दूसरी शकल में प्रश्न मौजूद हो जाते हैं। सिर्फ आप चुप बैठे हैं और मैं बोल रहा हूँ, इसलिए आप सुन रहे हैं, इस भ्रांति में मत पड़ जाना।

कार्ल गुस्ताव जुग के पागलखाने में दो प्रोफेसर भर्ती हुए थे। ऐसे प्रोफेसरों की टेंडेंसी, वृत्ति पागल हो जाने की स्वाभाविक है। उन दोनों का जुग अध्ययन करता था। खिड़की से छिपकर एक दिन सुन रहा था उन दोनों की बातें--बहुत हैरान हो गया। वे दोनों बिलकुल ही असंगत बातें कर रहे थे। दोनों की बातो में कोई भी संबंध न था। एक आकाश की बातें कर रहा था, दूसरा पाताल की। उन दोनों में कोई नाता नहीं था, उनमें कोई जोड़ नहीं था। उनमें कोई संगति नहीं थी।

लेकिन एक और भी अजीब बात थी। यह तो स्वाभाविक था, दो पागल आदमी बातें करें—तो उनकी बातों में संगति, तालमेल नहीं हो सकता। लेकिन इससे भी आश्वर्य की बात थी कि जब एक बोलता था तो दूसरा चुप रहता था। जब दूसरा बोलना बंद करता था तब पहला बोलना शुरू करता था। लेकिन दोनों की बातों में कोई संबंध नहीं था।

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