धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
इस सोने में एक तरह का सुख मिलता है। और वह सुख यही है कि हमें दुखों का कोई पता नहीं चलता। जब हम बाहर आते हैं तो इतनी देर के लिए जो नींद पैदा हो गई--जो अपने हाथ से पैदा की गई नींद थी, उस नींद के बाद थोड़ी सी राहत मिलती है। थोड़ा हल्का, अच्छा लगता है। और वह हल्का लगने की वजह से फिर हम सोचते हैं दुबारा जाप, तिबारा जाए। फिर यह एक माइंड की हेबिट, एक आदत बन जाती है। फिर रोज-रोज मन मांग करता है--जैसे मांग सिगरेट की करता है, चाय की करता है, वैसे ही वह कहता है अब राम-राम जपो। क्योंकि उससे थोड़ी सी राहत मिलती है। और जिस दिन राम-राम नहीं जपते, उस दिन ऐसा लगता है कि जैसे कोई काम छूट गया, जैसे सिगरेट नहीं पी। आज तो लगता है कुछ खाली जगह रह गई। ऐसा उससे भी लगता है। ये दोनों एक सी आदतें हैं।
इनमें कोई भी फर्क नहीं है।
न तो जप, न एकाग्रता--ये मनुष्य को आत्मज्ञान में नहीं ले जाते हैं। आत्मज्ञान में तो ले जाता है ध्यान।
और ध्यान का अर्थ है--परिपूर्ण चैतन्य, जागरूकता, कांशसनेस। बेहोशी नहीं, नींद नहीं-- होश। जितना ज्यादा मेरे भीतर जागरूक होता जाए चैतन्य, जितना अलर्ट, जितना अवेअर, जितना बोधपूर्ण--उतना मेरे भीतर क्या है, उसकी जानने की दिशा, जानने की सामर्थ्य, जानने की पात्रता मुझे उपलब्ध होती चली जाती है।
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