धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
|
5 पाठकों को प्रिय 434 पाठक हैं |
माथेराम में दिये गये प्रवचन
यह जो हमारा मन है, यह जो मन का मंदिर है, यह जो पुराना मंदिर है--जिसमें हम बैठे हैं, और जिसमें हम कंप रहे हैं कि यह कभी भी गिर सकता है। जिसके गिरने के भय से एंग्जायटि, एंग्विश, चिंता और संताप पैदा होता है। और हर आदमी जीवनभर चिता में रहता है कि कब गिर जाएगा यह मंदिर, जिसके नीचे मैं बैठा हूँ। रात न सो पाता है चैन से, न दिन जाग पाता है। चौबीस घंटे इसके गिरने का डर है। इस डर को जब तक हम जीतेंगे नहीं और इसके लिए राजी न हो जाएंगे कि इसे खुद ही गिरा दें, तब तक हम नए मंदिर को बना नहीं सकते हैं।
चित्त का यह जो झूठा मंदिर हमने बना रखा है अपने चारों तरफ, यह सही नहीं है। अगर यह सही होता तो हम शांत हो गए होते। अगर यह सही होता तो हमारा चित्त एक फूल की तरह खिल गया होता। अगर यह सही होता तो हमारे जीवन में सुगंध फैल गई होती। अगर यह सही होता तो हम अपने आपको जान लिए होते, जो अमृत है। अगर यह सही होता, तो हम उसे पहचान लेते, जो जीवनों का जीवन है, जो परमात्मा है। लेकिन यह सही नहीं है। और इसको हम सम्हालकर बचा रखना चाहते हैं। तो जो सही है, उसे हम कभी जान भी न पाएंगे और बना भी नहीं पाएंगे। इसे तोड़ने की हिम्मत होनी ही चाहिए।
जो आदमी विध्वंस करने को राजी हो जाता है, वही आदमी सृजन करने में भी समर्थ होता है। डिस्ट्रक्शन, विध्वंस--क्रिएशन का, सृजन का पहला सूत्र है। एक इमेज है हमारी, एक प्रतिमा है, उसे गिराने का साहस ही हमें अंतरात्मा के ज्ञान में ले जा सकता है। और यह ज्ञान, निरीक्षण, जागरूकता, एक-एक वृत्ति के अनुसरण से संभव होता है और फलित होता है।
सुबह मुझे इतनी ही बात कहनी थी। अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे। थोड़े-थोड़े फासले पर हम हो जांय।
माथेरान, दिनांक 21-10-67, सुबह
|