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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

शब्दों को पकड़कर बैठे रहिए तो कभी नहीं पहुँच सकेंगे। खोजिए अपनी प्यास को—भीतर कोई प्यास है, सच में कोई भीतर आकांक्षा सरकती है--जीवन को जानने की कोई जिज्ञासा और अगर है तो फिर दूसरी बात ध्यान में रखना पड़ेगी। इस जिज्ञासा को बोथला मत कर लीजिए। जिज्ञासा को हम बोथला कर लेते हैं। भीतर जिज्ञासा है जानने की और हम मान लेते हैं दूसरों की बातों को तो जिज्ञासा बोथली हो जाती है, कुंठित हो जाती है। भीतर है जानने की जिज्ञासा क्या है और हम मान लेते हैं--आत्मा है, परमात्मा है। मान लेते हैं चुपचाप। इस मान लेने के कारण, इस विश्वास के कारण, ऐसी बिलीव्स के कारण फिर जिज्ञासा कुंठित हो जाती है, रुक जाती है। फिर जिज्ञासा आगे गहरी नहीं हो पाती है। विश्वास जिज्ञासा को रोक लेते हैं, ठहरा लेते हैं, फिर जिज्ञासा गहरी नहीं हो पाती। अगर जिज्ञासा को गहरा करना है तो विश्वासों को मत पकड़ना, थोथे ज्ञान को मत पकड़ना, सुने-सुनाए ज्ञान को, पढ़े-पढ़ाए ज्ञान को मत पकड़ लेना--वह सब जिज्ञासा को मार डालेगा।

क्यों? क्योंकि बिना जाने हमें यह भ्रम पैदा हो जाएगा कि हम जानते हैं। हम सबको यह भ्रम है कि हम जानते हैं--ईश्वर है। हम सबको यह भ्रम है हम जानते हैं--मोक्ष है। हम सबको यह भ्रम है हम जानते हैं--पुनर्जन्म है। हम सबको यह भ्रम है हम जानते हैं कर्म है, आत्मा है, फलां है, ढिकां है। हम सब कुछ जानते हुए मालूम पड़ते हैं।

यह जानते हुए मालूम पड़ना घातक है। यह आपकी प्यास की हत्या कर देगा। और फिर आपके भीतर वह ज्वलंत प्यास नहीं रह जाएगी, जो पहुँचा सकती है। इस सबको छोड़ देने के लिए इसीलिए मैंने इधर तीन दिनों में आपसे कहा। जाने ठीक से कि मैं अज्ञानी हूँ नहीं जानता हूँ।

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