धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
एक यात्री उस राह से निकलता था, दूसरे गांव तक जाने को। उसने उनकी पीड़ा पूछी, उनके गिरते आंसू देखे। उसने पूछा, क्या कठिनाई है उन्होंने कहा, हम दस नदी में उतरे थे, एक साथी खो गया, उसके लिए हम रोते हैं। कैसे खोजें - उसने देखा वे दस ही थे। वह हंसा और उसने कहा, तुम दस ही हो, व्यर्थ की खोज मत करो और अपने रास्ते चला गया।
उन्होंने फिर से गिनती की कि हो सकता है, उनकी गिनती में भूल हो। लेकिन उस यात्री को पता भी न था। उनकी गिनती में भूल न थी, वे गिनती तो ठीक ही जानते थे। भूल यहाँ थी कि कोई भी अपनी गिनती नहीं करता था। उन्होंने बहुत बार गिना, फिर भी वे नौ ही थे।
और तब उनमें से एक भिक्षु नदी के किनारे गया। उसने नदी में झांककर देखा। एक चट्टान के पास पानी थिर था। उसे अपनी ही परछाई नीचे पानी में दिखाई पडी। वह चिल्लाया, उसने अपने मित्रों को कहा, आओ, जिसे हम खोजते थे, वह मौजूद है। दसवां साथी मिल गया है। लेकिन पानी बहुत गहरा है और उसे हम शायद निकाल न सकेंगे। लेकिन उसका अंतिम दर्शन तो कर लें। एक-एक व्यक्ति ने उस चट्टान के पास झांककर देखा, नीचे एक भिक्षु मौजूद था। सबकी परछाई नीचे बनती उन्हें दिखाई पड़ी। तब इतना तो तय हो गया, इतने डूबे पानी में वह मर गया है।
वे उसका अंतिम संस्कार कर रहे थे। तब वह यात्री फिर वापस लौटा, उसने पूछा कि यह चिता किसके लिए जलाई हुई है? यह क्या कर रहे हो? उन नौ ही रोते भिक्षुओं ने कहा, मित्र हमारा मर गया है। देख लिया हमने गहरे पानी में डूबी है उसकी लाश। निकालना तो संभव नहीं है। फिर वह मर भी गया होगा, हम उसका अंतिम दाह-संस्कार कर रहे हैं।
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