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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

स्वतंत्रता विद्रोह नहीं है। स्वतंत्रता रिबेलियन नहीं है- स्वतंत्रता एक रिवल्यूशन है, एक क्रांति है। विद्रोह किसी के खिलाफ होता है। और जिसके खिलाफ हम खड़े होते हैं, हम उससे वंध जाते हैं। क्योंकि उसका विरोध करना होता है। उसके विरोध के कारण हमारा उससे एक संबंध हो जाता है, एक रिलेशनशिप हो जाती है। और उस विरोधी को देखकर हम निरंतर कदम उठाते हैं।

हिदुस्तान में मुसलमान आए और उन्होंने मंदिर तोड़ने शुरू कर दिए। मंदिर तोड़ने की वजह से वे मंदिरों से बंध गए--उतने ही जितने कि मंदिरों को बनाने वाले बंधे हुए थे। वे मंदिरों से मुक्त न रह सके। मंदिर उनके प्राण लेने लगे, सपनों में उन्हें सताने लगे। उनका चित्त मंदिरों पर घूम-घूमकर पहुँचने लगा--उतना ही जितना कि उनका पहुँचता होगा जो कि मंदिरों को बनाते हैं, शायद उनसे ज्यादा।

मूर्ति को बनाने वाला, मूर्ति को तोड़ने वाला--दोनों मूर्ति के भक्त होते हैं। एक मित्र-भक्त होता है, एक शत्रु-भक्त होता है। लेकिन दोनों का चित्त वहीं घूमता रहता है। जिससे हम विरोध करते हैं, हम उससे बंध जाते हैं। और बंधने के कारण हम उस विरोधी के ही एक रूपांतर होते हैं, एक माडीफिकेशन होते हैं।

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