धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
एक मित्र ने पूछा है कि आपने जो ध्यान की विधि कही, उसमें और एकाग्रता के हमेशा से चलने वाले मार्ग में क्या फर्क है?
बहुत फर्क है। जितना फर्क हो सकता है, उतना फर्क है।
एकाग्रता चित्त का श्रम है। एकाग्रता का मतलब है, कसन्ट्रेशन का--किसी एक चीज पर चित्त को जबर्दस्ती रोकना, शेष सारी चीजों पर चित्त को बंद करना, केवल एक चीज पर खोलना। चाहे नाम पर, चाहे मूर्ति पर, चाहे शब्द पर, चाहे किसी और प्रतीक पर, कोई सिंबल पर। एक पर मन को रोकना और शेष सबके प्रति मन को बंद करना।
यह मन के स्वभाव के प्रतिकूल है। यह जबर्दस्ती है। इस जबर्दस्ती में चित्त पर तनाव पैदा होगा, श्रम होगा, स्ट्रैन होगा, परेशानी होगी। और परेशानी के दो फल हो सकते हैं। अगर चित्त बहुत परेशान हो जाएगा तो बचने के दो उपाय हैं। या तो चित्त सो जाए तो परेशानी से छुटकारा हो जाता है। और या चित्त पागल हो जाए तो भी परेशानी से छुटकारा हो जाता है।
कसन्ट्रेशन या तो नींद में ले जा सकता है, या पागलपन में। और कहीं भी नहीं ले जा सकता। जो अनेक साधु पागल होते देखे जाते हैं, उसका कोई और कारण नहीं है। लेकिन हम तो अजीब ही लोग हैं। हम कहते हैं ईश्वर का उन्माद चढ़ गया है, ईश्वर के आनंद में मस्त हो गए हैं। हो गए हैं पागल। और या चित्त सो जाता है। क्योंकि चित्त को ज्यादा हम परेशान करें तो फिर चित्त परेशानी से ऊब जाता है और नीद में चला जाता है, वह उसकी एस्केप है।
तो, अनेक लोग जो माला-वाला जपते रहते हैं, अक्सर गहरी नींद में सोए रहते हैं। राम-राम जपते रहते हैं, उससे नींद अच्छी आती है। उतनी देर नींद अगर आ जाती है तो उन्हें अच्छा लगता है। क्योंकि उतनी देर सब भूल जाता है। जहाँ सब भूल जाता है, वहाँ दुःख, चिंताएं भी भूल जाती हैं। दुःख, चिंताओं का भूल जाना--परमात्मा को, आनंद को, या सत्य को पा लेना नहीं है। वह तो शराब पीने वाला भी यही कर रहा है, दुःख, चिंताओं को भूल रहा है।
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