धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
नहीं, विचार सब एक जैसे हैं। न कोई बुरा है और न कोई अच्छा है। विचार, विचार है। आप सिर्फ देख रहे हैं। एक रास्ते पर खड़ें हैं, लोग जा रहे हैं। एक साधुजी जा रहे हैं, वे बहुत अच्छे हैं। एक चोर जा रहा है, वह बहुत बुरा है। आपको क्या लेना-देना है--वे रास्ते से जा रहे हैं।
और किसको पता कौन अच्छा है, कौन बुरा है। हो सकता है साधुजी चोरी का विचार कर रहे हो और हो सकता है चोर साधु हो जाने की योजना बना रहा हो। कोई पक्का नहीं है। कोई हिसाब तय नहीं है कि कौन, कौन है।
तो भीतर क्या-क्या है--इसका बहुत ज्यादा निर्णय आप करेंगे, तो आप जागरूक नहीं हो सकते। आप निर्णय में उलझ जाएंगे और निर्णय में उलझ गए, तो आप विचार में उलझ जाएंगे। और विचार में आप उलझ गए तो--वह तो आप उलझे ही हुए हैं, उससे निकलने का कैसे रास्ता बन सकता है?
खयाल में लें यह बात कि विचार सिर्फ विचार है। और हम केवल तटस्थ साक्षी हैं। हम सिर्फ देख रहे हैं। न उन्हें निकालना है, न निकालने की कोई जरूरत है, न कोई सवाल है। सिर्फ देखना है। और जैसे-जैसे आपका देखना गहरा होगा, आप पाएंगे कि जिनको आप कभी नहीं निकाल पाए थे, वे नहीं आ रहे हैं। जैसे-जैसे देखना गहरा होगा, आप पाएंगे--न अच्छा, न बुरा, कोई भी नहीं आ रहा है।
जिस दिन देखना पूरा होता है, जिस दिन वह अंतर्दृष्टि पूरी सजग होती है, उस दिन कोई विचार नहीं रह जाता। न अच्छा, न बुरा--विचार-मात्र नहीं रह जाता है।
तो लोग आपसे कहेंगे कि विचार अलग कर दें तो ध्यान उपलब्ध हो जाएगा। मैं आपसे उलटी बात कहना चाहता हूँ। ध्यान को उपलब्ध हो जाएं, विचार विलीन हो जाएंगे।
और ध्यान का अर्थ है दर्शन, देखना।
वह जो विचारों की धारा बह रही है, उसे देखना चुपचाप।
इस प्रयोग को अभी हम करेंगे।
माथेरान, दिनांक 19-10-67, रात्रि
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