धर्म एवं दर्शन >> धर्मरहस्य धर्मरहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
हम जिस विद्या को विज्ञानशास्त्र कहते हैं, वह हजारों वर्षों से स्वाधीनता-लाभ की चेष्टा करती आ रही है; और सब लोग सदैव इस स्वाधीनता की ही आकांक्षा कर रहे हैं। परन्तु प्रकृति के भीतर तो स्वाधीनता या मुक्ति नहीं है। उसके भीतर नियम - केवल नियम है। तथापि मुक्ति की यह चेष्टा चल रही है। विशाल सूर्य- मण्डल से लेकर क्षुद्र परमाणु तक सभी प्रकृति के नियमाधीन हैं - यहाँ तक कि मनुष्य की भी स्वाधीनता नहीं है। परन्तु हम इस बात पर विश्वास नहीं कर सकते, हम अनादि काल से ही प्राकृतिक नियमावली की आलोचना करते आ रहे हैं, परन्तु मनुष्य भी नियम के अधीन है - इस बात पर हम विश्वास नहीं कर सकते, विश्वास करना नहीं चाहते - कारण, हमारी आत्मा के अन्तस्तल से निरन्तर 'मुक्ति! मुक्ति! स्वाधीनता! स्वाधीनता!' यही अनन्त चीत्कार उठ रही है। मनुष्य ने जब नित्यमुक्त पुरुषस्वरूप ईश्वर की धारणा लाभ की है तब वह अनन्तकाल तक के लिए बन्धन के भीतर रहकर शान्ति नहीं पा सकता। मनुष्य को उच्च से उच्चतर पथ पर अग्रसर होना होगा, और उसकी यह चेष्टा यदि अपने लिए न होती, तो इसे वह बड़ा कष्टदायक समझता। मनुष्य अपनी ओर देखकर कहा करता है, ''मैं जन्म के साथ ही प्रकृति का क्रीत-दास हूँ, - बद्ध हूँ तब भी एक ऐसे पुरुष हैं, जो प्रकृति के नियम में बद्ध नहीं है - जो नित्यमुक्त और प्रकृति के भी प्रभु है।''
इसलिए, बन्धन की धारणा, जिस प्रकार हमारे मन का अच्छेद्य अंशस्वरूप है, ईश्वर की धारणा भी उसी प्रकार प्रकृतिगत और हमारे मन का अच्छेद्य अंशस्वरूप है। दोनों ही इस स्वाधीनता के भाव से उत्पन्न हुई है। और तो क्या, स्वाधीनता का भाव न रहने पर उद्भिज के भीतर भी जीवनी-शक्ति नहीं रह सकती। उद्भिज अथवा कीट के भीतर वह जीवनी- शक्ति विकसित होकर 'व्यक्तित्व' के स्तर तक ऊपर उठने की चेष्टा कर रही है। अज्ञातभाव से मुक्ति की चेष्टा उनके भीतर कार्य कर रही है। उद्भिज जीवन धारण कर रहा है, उसका उद्देश्य है अपने विशेषत्व, अपने विशेष रूप, अपने निजत्व की रक्षा करना - उस मुक्ति की अविराम चेष्टा ही उसकी उस चेष्टा का प्रेरक है - प्रकृति नहीं।
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