उपन्यास >> फ्लर्ट फ्लर्टप्रतिमा खनका
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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।
‘सही कहा...’ उसने पास से गुजरते हुए एक वेटर से वाइन का एक ग्लास उठा लिया। ‘...यहाँ कोई तेरे मतलब की नहीं है।’ वो मुझे शिप की छत पर ले गया और नीचे पागल हो रही भीड़ को देखते हुए- ‘अभी एक घण्टे पहले ही सब कितने सिविल थे और अब... ईविल!’ उसने ठहाका लगाया और मेरी तरफ देखा। ‘मैं थक चुका हूँ ये पार्टिस.... भीड़.... ये शोर, इन सब से। शादी के बाद कुछ दिन कहीं दूर जाना चाहता हूँ इस सब से।’ पी तो हम दोनों ने ही थी लेकिन नशे में सिर्फ वो और उसकी जुबान थी। मैं तो उसके सामने चुप ही रहता था इस हाल में। उसने मुझमें कुछ निहारा, कुछ टटोला मेरे अन्दर-’ अबे हँस भी दिया कर कभी। तू ना अपना वो चार्म..... अपनी वो मुस्कुराहट खो चुका है!’
मैंने कोई जवाब न दिया।
अपनी पूरी ड्रिन्क एक साँस में खत्म कर के- ‘इसी वजह से! इसी वजह से मैं तुझे समझाता था कि दूर रह उस बिच से लेकिन...’
‘संजय प्लीज!’ मैं चीख उठा! आज भी उसके लिए कुछ बर्दाश्त नहीं था मुझे। ‘मैं ठीक हूँ।’ उसने असहमति के साथ अपनी नजरें दूसरी तरफ कर लीं। ‘तुम भूल रहे हो कि वो तुम ही थे जिसने उस तरफ धक्का दिया था मुझे।’
‘और उसके लिए मैं कभी खुद को माफ नहीं कर सकता। मैं अपनी भूल सुधारना चाहता हूँ।’
‘कुछ भूल कभी नहीं सुधरतीं।’ अपने गुस्से और संवेदना से जूझते हुए मैंने कहा।
‘लेकिन हमें कोशिश तो करनी ही होगी! प्लीज, भूल जा उसे।’ उसने मेरे हाथ पर जोर दिया।
‘और कितना भूलूँ उसे?’ एक गहरी साँस छोड़कर मैं खामोश हो गया।
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