उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
सवित्री के ताने
गोशाला। सावित्री का घर। दोपहर का समय।
‘‘बस!...बहुत हुआ देव!‘‘ सावित्री बोली गुस्साकर बहुत ही कठोर स्वर में।
‘अब तुम्हारा ये रोज-रोज का नाटक नहीं चलेगा! आज शाम की ट्रेन से तुम कानपुर जा रहे हो.... अपने डैडी के पास!‘‘
मामा तुम्हें स्टेशन छोड़ देंगें.. और कल सुबह जब तुम कानपुर पहुँचोगे... तो तुम्हारे डैडी कार लेकर तुम्हें लेने आ जाएगें‘‘ सावित्री बोली।
ड्रामा मतलब गंगा के प्यार-व्यार के चक्कर में खाना पीना न खाना। सभी से चिड़चिड़ा व्यवहार करना। देव के इस रूखे व्यवहार से सावित्री तंग आ गई थी। पूरी तरह थक हार सी गई थी। बिल्कुल परेशान सी हो गई थी बेचारी। मैनें साफ-साफ देखा....
‘‘हम कहीं नहीं जाएंगें!‘‘ देव ने पुरानी जिद पकड़ ली।
‘‘हमारा कहीं जाने का मन नहीं है! हम गोशाला में ही ठीक हैं!‘‘ देव एक बार फिर से बोला उदासी भरे स्वर में।
‘बेटा तुम्हें जाना ही होगा!... यही तुम्हारे लिए अच्छा होगा! मैं तुम्हारी माँ हूँ! कोई तुम्हारी दुश्मन नहीं! मुझे तुम्हारी फ्रिक है! तुम्हें अब कानपुर में ही रहना चाहिए! यहाँ रहोंगे तो सारा दिन गंगा की यादें तुम्हें सताती रहेंगी!‘‘ सावित्री बोली चितिंत स्वर में।
‘अब मैं और तुम्हें उस लड़की के चक्कर में अपनी जिन्दगी नहीं बर्बाद करने दूँगी!‘‘ सावित्री ने कहा गंभीर होकर भारी आवाज में।
‘‘नहीं!‘‘ देव ने पुरानी रट लगायी।
पर ये क्या? सावित्री को अचानक से बड़ा गुस्सा आ गया।
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