उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
शिवालय (अन्तिम बार)
सुबह तड़के ही देव शिवालय पहुँचा। मन्दिर का पुजारी अभी उठा ही था। वो देव को अच्छी तरह पहचानता था क्योंकि देव हर दिन शिव की पूजा करने जाता था।
‘‘बाबा! मुझे शिव से मिलना है!‘‘ देव पुजारी के पास पहुँचा।
‘‘.....पर बेटा! अभी तो आरती भी नहीं हुई है, कुछ देर रूको! आरती हो जाए तब मिल लेना‘ पुजारी बोला।
‘‘बाबा!...‘‘ देव की आवाज में बड़ी करुणा थी, मैंने पाया जैसे कोई मरीज कम्पाउन्डर से गुहार करे कि कृपया डाक्टर से कुछ मिनटों के लिए मिलने दो।
‘‘बाबा! मेरा शिव से मिलना बहुत जरूरी है! ये जीवन और मृत्यु का सवाल है!‘‘ देव बोला।
पुजारी ने सुना। देव को देखा। अभी साढ़े चार बजे थे। ठीक पाँच बजे शिवालय में आरती होती थी। पर देव बहुत बेचैन था, बहुत अधिक व्याकुल। देखने से ही लग रहा था कि सच में कोई जीने-मरने वाली बात है। पुजारी ने देव का दुख पहचाना। और मन्दिर के कपाट खोल दिये। कपाट लकड़ी का बना हुआ था, जो काफी पुराना था। कपाट पर भिन्न-भिन्न प्रकार की सुन्दर पच्चीकारी की गयी थी। मैंने गौर किया....
देव ने मुख्य कक्ष में प्रवेश किया ...
‘‘शिव!...‘‘ हमेशा मृदुल स्वर में धीमी आवाज में बोलने वाला देव खूब जोर से चिल्लाया। देव ने मन्दिर के कपाट अन्दर से बन्द कर लिये थे। मैंने देखा.....
‘‘आज लोग हमें पागल कहतें हैं! कुछ पता भी है तुम्हें?‘‘ देव ने शिव से प्रश्न किया था।
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