उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
अट्ठारह साल बाद।
आत्माओं का प्रेम
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन। दिसम्बर का महीना।
शाम के साढ़े सात बजे थे। खिड़की से बाहर झाँकने पर देव ने इंजन का धुँआ देखा। उसे दस बात की तसल्ली हो गयी कि टंन अब चलने बाली है।
‘‘धाँय! धाँय! धाँय!‘‘ सारे यात्री अपनी-अपनी रिजर्व सीट पर कब्जा लेते जा रहे थे। जो बेचारे प्रतीक्षा सूची में थे वो अन्य यात्रियों की तरफ बेबसी से देख रहे थे कि शायद किसी को तरस आ जाए और कोई उन्हें अपनी शैय्या का थोड़ा सा भूभाग दे दे बैठने के लिए।
मैंने पाया, चाय वाले चाय बेचते जो कड़ाके की इस ठंड में गर्मियों का एहसास कराती। अन्य वेंडर बिस्कुट, चिप्स आदि खाद्य पदार्थ बेच रहे थे। अभी देव अपनी सीट पर ठीक से बैठ भी न पाया था कि इतने में एक पाँच सदस्यीय परिवार ने बोगी में प्रवेश किया। वो लोग गोरखपुर के निवासी थे जो दिल्ली गये थे किसी विवाह में शरीक होने। परिवार के ज्यादातर लोग सरकारी नौकरियाँ करते थे, ऊँचे पदों पर आसीन थे इसलिए रहन-सहन काफी नवाबी था।
परिवार में एक युवती भी थी जिसने आते ही आते अपनी सीट पर अपना अधिकार कर लिया, जैसे अपना वर्चस्व कायम कर लिया। देव नीचे की शैय्या पर लेटा था जिससे उसकी नजरों के सामने वो युवती थी और युवती के ठीक सामने देव!
|