उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
शिवालय
सुबह होते ही देव शिवालय गया। वही गोशाला का प्रसिद्ध शिवालय।
‘एक..... दो..... तीन.... चार.... और ये सौ सीढि़याँ पूरी!’ देव का दम फूल गया एक ही साँस में सौ सीढि़याँ चढ़ते-2। वह ऊपर पहुँचकर नीचे घुटनों पर बैठ गया सुस्ताने। आज देव बहुत खुश था। उसके अन्दर गजब का उत्साह था। न जाने कौन सी बात थी...
‘अरे बेटा! दौड़ता क्यों है? आराम से सीढि़याँ चढ़ो! इतनी भी क्या जल्दी है!’ पुजारी बोला। वो बहुत भला व्यक्ति था। वो हमेशा ही गेरू रंग के कपड़े व सफेद धोती में रहता था। वह मन्दिर में आने वाले हर श्रद्धालु का हाल-चाल जरूर पूछता था। वह देव को अच्छी तरह जानता था और समय-2 पर उसका हाल चाल पूछता रहता था। मैंने जाना...
‘कोई बात नहीं! बस ऐसे ही...बाबा!’ देव ने जवाब दिया।
मन्दिर के मुख्य कक्ष में शिवलिंग स्थापित थी। दीवारें षट्भुजाकार थी... छह भुजाओं वाली। एक दीवार पर भगवान शिव की मूर्ति स्थापित थी। शिव नीले रंग में रंगे हुए थे। रंगकार ने शिव के जटाऐं, डमरू व त्रिशूल को काले रंग से जबकि चन्द्रमा और बहती हुई गंगा नदी को सफेद रंग से बड़ी ही कुशलता से रंगा था। इस प्रकार शिव की यह मूर्ति बड़ी ही सुन्दर थी। बिल्कुल अप्रतिम। शिव के मुख पर एक मोहक मुस्कान थी। शेर की खाल पर बैठे शिव को देख यही आभास होता था जैसे शिव निर्जीव नहीं बल्कि सजीव हैं और प्रत्यक्ष रूप से मौजूद हैं। मैंने गौर किया....
देव ने कपाट के ऊपर लगी घण्टी बजाई और मुख्य कक्ष में प्रवेश किया....
‘‘शिव!‘‘ देव ने भगवान को पुकारा बड़ी निष्ठा और प्रेम से।
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