उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
रानीगंज 2
देव एक बार फिर से पहुँचा रानीगंज गंगा के गाँव में।
‘‘एक बड़ा सा काउण्टर लकड़ी और काँच से बना हुआ देव ने देखा जो सैकड़ों प्रकार की मिठाइयों लड्डू, बर्फी, पेढ़ा, कलाकन्द, मिल्ककेक, गुलाब जामुन और न जाने क्या-क्या से भरा पड़ा था। स्पंज वाले बड़े-बड़े गोल रसगुल्ले काँच के जार्स में तैर रहे थें। सारे जार्स क्रमबद्ध रूप से एक लाइन में लगे हुए थे।
‘‘बाप रे बाप! इतनी सारी मिठाइयाँ‘‘ देव चौंक पड़ा।
पिछली बार ये सब देखकर देव को जो झटका सा लगा था, इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैंने पाया...
देव बिल्कुल नार्मल रहा।
‘‘ये हलवाई लोग कैसे एक ही दिन में तरह-तरह की मिठाइयाँ बना लेते हैं?‘‘ सीधे-साधे देव ने सोचा बड़े आश्चर्य से।
‘‘.....और जब मिठाइयाँ बन जाती हैं तो ये लोग खुद को कैसे कन्ट्रोल करते हैं? सारा दिन मिठाइयाँ बनाना और फिर उन्हें ना खाना बल्कि दूसरों को बेच देना, ये तो बड़ी त्याग-तपस्या वाला बिजनेस मालूम पड़ता है!‘‘ देव ने फिर सोचा बड़े आश्चर्य से सिर हिला-हिला कर।
‘‘बेकार में लोग मंत्री-विधायक की लड़कियों से शादी करने के लिए मरते है, यहाँ पर आकर तो यही प्रतीत होता है कि हलवाइयों के यहाँ शादी करना ही सबसे फायदे की बात है!‘‘ देव ने दिमाग पर जोर डाला...
‘‘एक तो सुन्दर-2 कन्या मिले, ऊपर से जब ससुराल आओ तो जितना मन आये मिठाइयाँ खाओ। कोई रोक नहीं, कोई टोक नहीं। कोई गिनना नहीं कि एक रसगुल्ला खाया कि दो! एक लड्डू उठाया कि दो। कोई जाँच करने वाला नहीं!‘‘
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