उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
फिर! फिर! फिर! ...फिर क्या हुआ? बताओं ना? अब मुझसे कन्ट्रोल नहीं हो रहा है?
फिर अपने तेज-तर्रार देव ने झट से आगे बढ़कर गंगा के ओठों को चूम लिया.....एक बार, दो बार, तीन बार, बार-बार, अनेक बार। बाप रे बाप! कमाल हो गया। गंगईया की डार्क कलर वाली सस्ती-2 लेकिन चटक लाल लाली पूरी की पूरी देव के गुलाबी-गुलाबी ओठों पर स्थानान्तरित हो गई। दो लब दो लब चार हो गये। दो आँखे दो आँखे चार हो गई। मैनें साफ-साफ देखा..
पर ये चार-चार वाला जादू आखिर हुआ कैसे?‘‘ मैंने देव से पूछा।
‘‘...प्यार के जादू से! प्रेम के जादू से!‘‘ देव ने मुझे बताया।
कुछ समय बाद ये भोजपुरी पिक्चर खत्म हुई। दोनों अपने-अपने घर आये। पर देव को तो सिर्फ गंगा को चूमना ही याद रहा। पिक्चर में क्या दिखाया गया, ये तो वो भूल ही गया।
ये इश्क हाये....
बैठे बिठाऐ....
जन्नत दिखाये...हाँ!
ओ रामा ...
ये इश्क हाये....
बैठे बिठाऐ....
जन्नत दिखाये...हाँ!
देव ने गाया। मैंने सुना।
|