उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
सिर्फ दो लाइन पढ़ते ही गंगा का बाबू जो कि पहले से ही महाक्रोधी व पुराने खयालातों वाला इन्सान था क्षणभर में आगबबूला हो गया बिल्कुल अपनी बड़ी सी भट्टी के जलते कोयलों की तरह। उसका पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा। वो अपनी दुकान के सारे काम छोड़छाड़ कर घर के भीतर गया। उस समय गंगा दुकान के लिए बेसन की आलू वाली टिक्कियाँ बना रही थी।
‘‘का रे गंगईया? इ सब का है?‘‘ गंगा के बाबू ने चिट्ठी गंगा को दिखाई।
‘‘इ कौन लड़का है जौन तोहरे बिना मर जाई?
उसी दौरान गंगा की माँ अपने पति की आवाज सुन वहाँ आ गई।
‘हम हियाँ कौनो मेर चाय बेच के, चवन्नी-2 जोड़ के एके एक लाख रुपया फीस भरा! एके ड्रेस सिलवावा! और इ आपन कापी-किताब की जगह कौनों देव के साथ प्यार-व्यार के पाठ पढ़त ही...
‘तोसे कहत रहेन एका पढ़ै-वढ़ै ना भेजो! पर तू नाई मानिव! जौन-जौन लड़के पढ़ै जात हैं वे पढ़ाई कम नैन मटक्का ज्यादा करत हैं! हमार बस चले तो सारे स्कूल-कालेज पर एक-एक बड़ा ताला मार दी! और ताला मार के ओके चाभी नदी मा बहाए दी!’ गंगा का बाबू बोला बहुत ही गुस्साकर।
उसने अपनी मुट्ठी बाँधकर गंगा से पूछा जैसे अभी गंगा को घूँसे ही घूँसे हुमकेगा। मैंने देखा....
गंगा अपने बाबू के इस विकराल रूप से बहुत डर गई। गंगा ने चिट्ठी ली और हैन्डराइटिंग देखते ही पहचान गई कि ये देव की चिट्ठी है।
पर ये क्या? हमेशा बेवकूफ सी दिखने वाली गंगा के जैसे कहीं से अचानक से दिमाग आ गया....
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