उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
देव ने गायत्री के दामन से अपने आँसू पोंछे जो अब जाकर बड़ी मुश्किल से रुक पाये थे ऐसा लग रहा था जैसे वे मैराथन की कई किलोमीटर वाली रेस लगा रहे हों। मैंने तुलना की....
‘‘गायत्री! ....हम कुछ कहना चाहते हैं!‘‘ देव ने कुछ कहने की इच्छा जताई।
‘‘पर प्रामिस करो तुम नाराज नहीं होगी! ....हमारी पूरी बात सुनोगी!‘‘ देव बोला।
‘‘हाँ!‘‘ गायत्री ने आश्वस्त किया। वो मुँह खोलकर नहीं बोली बल्कि पेट से बोली। देव को पकड़े-पकड़े, जकड़े-जकड़े ही। मैंने पाया....
‘‘गायत्री! हमने कहीं पढ़ा था कि सादगी में भी कत्ल करने की अदा होती है! पर जब तुमको देखा तो प्रत्यक्ष मालूम पड़ा!‘‘ देव बोला।
‘‘हूँ!‘‘ गायत्री ने सुना।
‘‘तुम गंगा की तरह कान में दो-दो सोने की बालियाँ नहीं पहनती हो! उसकी तरह कभी लिपिस्टक नहीं लगातीं! चटक रंगों वाले कपड़े नहीं पहनतीं! महँगी सैंडिल्स नहीं पहनतीं! कभी फैशन पर ध्यान नहीं देती हो! हमेशा पढ़ाई की बात करती हो! हमेशा ज्ञान की बात करती हो!‘‘ देव ने एक ही साँस में खींचकर कहा।
‘‘हूँ!‘‘ गायत्री ने सुना किसी जज की तरह। पर उसने अपने पतले-पतले ओंठ नहीं खोले। वो लगातार देव को पकड़े ही रही। ध्वनि पेट से उत्पन्न हुई। मैंने सुना....
‘‘हमने सोच कर रखा था कि जब सारे इक्जाम खत्म हो जाएगें, प्रैक्टिकल वगैरह हो जाएगा तब हम तुम्हें प्रपोज करेंगे!‘‘
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