उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
हमारे ये कान अब बस गंगा की ही आवाज सुनना चाहते हैं इसके सिवा कुछ भी नहीं चाहे वो कितनी ही सुरीली ध्वनि ही क्यों न हो!’ देव बोला एक बार फिर से पत्थर जैसे भारी आवाज में।
‘हूँ!’ सावित्री ने एक बार फिर से हाँ में सिर हिलाया।
‘.....अगर इस जन्म में गंगा हमें न मिली तो हमारी आत्मा को कभी शान्ति न मिलेगी. हमारी आत्मा.... हमारी रूह भटक के रह जायेगी!’ देव बोला धीरे-धीरे बड़ी ही गंभीरतापूर्वक जैसे कोई विकलाँग, अपाहिज व्यक्ति लंगड़ाकर चले और बोले भी लंगड़ाकर।
‘...और अगर हमारा विवाह गंगा से न हुआ तो मरते समय मुक्ति न मिलेगी ....इस नाशवान शरीर को! हमें कभी मोक्ष न मिलेगा ....और यदि मरने के बाद हमें स्वर्ग भी मिल गया तो भी वह नर्क के समान कष्टकारी होगा!’ देव ने कहा भारी स्वर में।
‘हूँ!’ सावित्री ने हाँ में सिर हिलाया। अब वह सब कुछ जान गयी।
‘मैंने बेकार में इतनी मेहनत की!’ सावित्री ने सोचा
सावित्री ने अपनी रिश्तेदारी में फोन कर कई लड़कियों की फोटो मँगवा ली थी। पर देव ने एक भी फोटो नहीं देखी। अब देव को कोई भी सुन्दर लड़की नहीं चाहिए थी। देव को बस चाहिए थी ‘गंगा‘। सावित्री ने जाना। अब पूरे घर ने भी।
दिन हफ्ते निकलते गए। देव का दुख और उदासी बढ़ती चली गई। वो दुख के महासमुद्र में जैसे डूबता चला गया। देव को अब जीने की लेशमात्र भी इच्छा न रही। मैंने देखा....
|