उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘जब पण्डित मंतर-संतर पढ़ रहा था तो मैंने देखा था उसके वो बिल्लियों जैसे वो नुकीले नाखून जो एक बार मेरे हाथ में लग गया था और खूब खून निकला था... वो नाखून उसने अभी तक काटे नहीं है!’ गायत्री धीमें स्वर में बोली कि कहीं गंगा सुन न ले।
‘गायत्री! अब गंगा समझदार हो चुकी है... तुम बेकार में टेंशन ले रही हो!’ देव ने आश्वस्त किया।
‘ठीक है! बेस्ट आफ लक! सुहागरात की बधाईयाँ!’ गायत्री ने अचानक से मुस्की मारी।
‘थैंक्स!’ देव ने भी मुस्की मारते हुए जवाब दिया।
‘तुम मेरी माँ के कमरे में जाकर सो जाओ! मैंने माँ से कह दिया है कि गायत्री तुम्हारे कमरे में ही आराम करेगी!’ देव बोला।
गायत्री सावित्री के कमरों की ओर प्रस्थान कर गई।
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देव ने कमरे में धीमे कदमों से प्रवेश किया।
गंगा जो डबल बेड पर बैठी थी वो देव के पास आयी। जहाँ हर अरेन्ज मैरिज में दुल्हन घूँघट में छिपी होती है फिर धीरे-धीरे फिल्मी स्टाइल में घूँघट उठाती है... वो सब चक्कर इस पिक्चर में था ही नहीं क्योंकि ये एक लव कम अरेन्ज मैरिज थी। मैंने पाया....
गंगा देव के पास आयी और अपनी दोनों हथेलियाँ देव के सामने कीं। उसने गायत्री की बात सुन ली थी और तुरन्त ही नेलकटर से अपने चाकू जैसे तेज नाखूनों को काट दिया था।
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