| यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
उस दिन सिलीगोड़ी से कलकत्ता विमान द्वारा जाने की बात सुन कर मेरे साथ मोटर में यात्रा करते सज्जन ने कहा- “मेरी भी इच्छा तो कहती है किंतु डर लगता है।” मैंने कहा - “डर काहे का? विमान से गिरने वाले योगी की मौत मरते हैं, कोई अंग-भंग होकर जीने के लिए नहीं बचता, और मृत्यु बात-की-बात में हो जाती है।” मेरे साथी योगी की मृत्यु के लिए तैयार नहीं थे। फिर मैंने बतलाया- “क्या सभी विमान गिरने से मर जाते हैं? मरने वालों की संख्या बहुत कम, शायद एक लाख में एक, होती है। जब एक लाख में एक को ही मरने की नौबत आती है तो आप 99999 को छोड़ क्यों एक के साथ रहना चाहते हैं?” बात काम कर गई और बागडोगरा के अड्डे से हम दोनों एक ही साथ उड़कर पौने दो घंटे में कलकत्ता पहुँच गये। विमान पर बगल की खिड़की से दुनिया देखने पर संतोष न कर उन्होंने यह भी कोशिश की, कि वैमानिक के पास जाकर देखा जाए। विमान में चढ़ने के बाद उनका भय न जाने कहाँ चला गया? इसी तरह घुमक्कड़ी के पथ पर पैर रखने से पहले दिल का भय अनुभवहीनता के कारण होता है। घर छोड़कर भागनेवाले लाखों में एक मुश्किल से एक ऐसा मिलेगा, जिसे भोजन के बिना मरना पड़ा हो। कभी कष्ट भी हो जाता है, “परदेश कलेश नरेशहु को,” किंतु वह तो घुमक्कड़ी रसोई में नमक का काम देता है। घुमक्कड़ को यह समझ लेना चाहिए, कि उसका रास्ता चाहे फूलों का न हो, और का रास्ता भी क्या कोई रास्ता है, किंतु उसे अवलंब देने वाले हाथ हर जगह मौजूद हैं। ये हाथ विश्वंभर के नहीं मानवता के हाथ हैं। मानव की आजकल की स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों को देखकर निराशावाद का प्रचार करने लगे हैं, लेकिन यह मानव की मानवता ही है, जो विश्वंभर बनकर अपरिचित जितना ही अधिक अपरिचित होता है, उसके प्रति उतनी ही अधिक सहानुभूति होती है। यदि भाषा नहीं समझता, तो वहाँ के आदमी उसकी हर तरह से सहायता करना अपना कर्त्तव्य समझने लगते हैं। सचमुच हमारी यह भूल है, यदि हम अपने जीवन को अत्यंत भंगुर समझ लेते हैं। मनुष्य का जीवन सबसे अधिक दुर्भर है। समुद्र में पोतभग्नी होने पर टूटे फलक को लेकर लोग बच जाते हैं, कितनों की सहायता के लिए पाते पहुँच जाते हैं। घोर जंगल में भी मनुष्य की सहायता के लिए अपनी बुद्धि के अतिरिक्त भी दूसरे हाथ आ पहुँचते हैं। वस्तुगत: मानवता जितनी उन्नत हुई है, उसके कारण मनुष्य के लिए प्राण-संकट की नौबत मुश्किल से आती है। आप अपना शहर छोड़िए, हजारों शहर आपको अपनाने को तैयार मिलेंगे। आप अपना गाँव छोड़िए, हजारों गाँव स्वागत के लिए तत्पर मिलेंगे। एक मित्र और बंधु की जगह हजारों बंधु-बांधव आपके आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप एकाकी नहीं है। यहाँ फिर मैं हजार असत्य और दो-चार सत्य-बोलने वाली गीता के श्लोक को उद्धृत करूँगा -
क्षुद्रं हृदय-दौर्बल्यं त्यक्त्वो त्वं त्तिष्ठा परन्तप।| 
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