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घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण



विद्या और वय


यदि सारा भारत घर-बार छोड़कर घुमक्कड़ हो जाय, तो भी चिंता की बात नहीं है। लेकिन घुमकक्ड़ी एक सम्मानित नाम और पद है। उसमें, विशेषकर प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ों में सभी तरह के ऐरे-गैरे पंच-कल्याणी नहीं शामिल किए जा सकते। हमारे कितने ही पाठक पहले के अध्यायों को पढ़कर बहुत प्रसन्न हुए होंगे और सोचते होंगे - “चलो पढ़ने-लिखने से छुट्टी मिली। बस कुछ नहीं करना है, निकल चले, फिर दुनिया में कोई रास्ता निकल ही आयगा।” मुझे संदेह है कि इतने हल्के दिल से घुमक्कड़ पथ पर जो आरूढ़ होंगे, वह न घर के होंगे न घाट के, न किसी उच्चादर्श के पालने में समर्थ होंगे। किसी योग्य पद के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता होती है। मैं यह बतला चुका हूँ, कि घुमक्कड़-पथ पर चलने के लिए बालक भी अधिकारी हो सकता है, नवतरुणों और तरुणियों की तो बात ही क्या? लेकिन हरेक बालक का ऐसा प्रयास सफलता की कोई गारंटी नहीं रखता। घुमक्कड़ को समाज पर भार बनकर नहीं रहना है। उसे आशा होगी कि समाज और विश्व के हरेक देश के लोग उसकी सहायता करेंगे, लेकिन उसका काम आराम से भिखमंगी करना नहीं है। उसे दुनिया से जितना लेना है, उससे सौ गुना अधिक देना है। जो इस दृष्टि से घर छोड़ता है, वही सफल और यशस्वी घुमक्कड़ बन सकता है। हाँ ठीक है, घुमक्कड़ी का बीज आरंभ में भी बोया जा सकता है। इस पुस्तक को पढ़ने-समझने वाले बालक-बालिकाएँ बारह वर्ष से कम के तो शायद ही हो सकते हैं। हमारे बारह-तेरह साल के पाठक इस शास्त्र को खूब ध्यान से पढ़ें, संकल्प  पक्का करें, लेकिन उसी अवस्था में यदि घर छोड़ने के लोभ का संवरण कर सकें, तो बहुत अच्छा होगा। वह इससे घाटे में नहीं रहेंगे।

मेरे छोटे पाठक उपरोक्त पंक्तियों को पढ़कर मुझ पर संदेह करने लगेंगे और कहेंगे कि मैं उनके माता-पिता का गुप्तचर बन गया हूँ और उनकी उत्सुकता को दबाकर पीछे खींचना चाहता हूँ। इसके बारे में मैं यही कहूँगा, कि यह मेरे ऊपर अन्याय ही नहीं है, बल्कि उनके लिए भी हितकर नहीं हैं। मैं नौ साल से अधिक का नहीं था जब अपने गाँव से पहले-पहले बनारस पहुँच था। मुझे अँगुली पकड़कर मेरे चचा गंगा ले जाते थे। मैं इसे अपमान समझता था और खुलकर अकेले बनारस के कुछ भागों को देखना और अपने मन की पुस्तकें खरीदना चाहता था।

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