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घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण



धर्म और घुमक्कड़ी


किसी-किसी पाठक को भ्रम हो सकता है, कि धर्म और आधुनिक घुमक्कड़ी में विरोध है। लेकिन धर्म से घुमक्कड़ी का विरोध कैसे हो सकता है, जबकि हम जानते हैं कि प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ ही कितने ही धर्मों के संस्थापक हुए, और कितनों ने धर्म से संबंधित हो अद्भुत साहस का परिचय देते दुनिया के दूर-दूर के देशों की खाक छानी। फाहियान की यात्रा हमने पढ़ी है, ह्वेनसांग और ईचिंग के भी दुर्दम्य साहस का परिचय उनकी यात्राओं से पाया है। मार्कोपोलो का उस समय की ज्ञात दुनिया में घूमना और देखी हुई चीजों का सजीव वर्णन आज भी घुमक्कड़ों के हृदय को उल्लसित कर देता है। जिन घुमक्कड़ों ने अपने यात्रा-वृत्तांत लिखे, उनमें भी सबका विवरण हम तक नहीं पहुँचा, लेकिन उनमें बहुत भारी संख्या तो ऐसे घुमक्कड़ों की है, जिन्होंने अपना कोई यात्रा-वृत्तांत नहीं लिखा। तिब्बत में गये दो सौ से ऊपर भारतीय पंडितों ने कितना कष्ट सहा होगा? घुमक्कड़-राज स्मृतिज्ञान कीर्ति (1042 ई.) ने कितनी साहसपूर्ण यात्रा आज से नौ सौ वर्ष पहले की थी। स्मृति ने अपने और दूसरों के लिखे कई संस्कृत ग्रंथों का भोटिया भाषा में अनुवाद किया, जो अब भी सुरक्षित हैं, किंतु उन्होंने अपनी यात्रा के बारे में कुछ नहीं लिखा। हमें तिब्बत वालों का कृतज्ञ होना चाहिए, जिनके द्वारा स्मृतिज्ञान-कीर्ति की कुछ बातें हम तक पहुँचीं। स्मृतिज्ञान-कीर्ति मगध के किसी बड़े विद्यापीठ के मेधावी तरुण पंडित थे। उस समय भारत-मही घुमक्कड़-वीरों से विहीन नहीं हुई थी। हमारे तरुणों में दुनिया देखने और वहाँ अपने देश से संदेश पहुँचाने की धुन रहती थी। दुनिया में भी भारत के सांस्कृतिक दूतों की माँग थी, क्योंकि भारतीय संस्कृति का सितारा उस वक्त ओज पर था। किसी विद्याप्रेमी तिब्बती बौद्ध ने भारत आकर अपने देश ले जाने के लिए पंडितों की खोज की। स्मृति और उनका एक तरुण साथी तैयार हो गये। विद्यापीठ के बंधु-बांधवों ने उनके संकल्प को जानकर बहुत प्रसन्नता प्रकट की और बढ़ी धूमधाम से विदाई दी। स्मृति और उनके साथी पैदल चलकर नेपाल पहुँचे। नेपाल में तिब्बत ले जाने वाला पुरुष हैजे से मर गया। दोनों तरुण बड़ी कठिनाई में पड़े। उन्हें भाषा भी नहीं मालूम थी और जिसके सहारे आए थे, वह संग छोड़कर चल बसा। स्मृंति ने कहा - हम अपनी नाव डुबा चुके है, पीछे लौटकर परले पार जाने का कोई उपाय नहीं है। मगध में लौटकर लोगों को क्या जवाब देंगे, जब वे कहेंगे - “आ गये तिब्बत में धर्म-विजय करके?”

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