यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
प्रेम
घुमक्कड़ को दुनिया में विचरना है, उसे अपने जीवन को नदी के प्रवाह की तरह सतत प्रवाहित रखना है, इसीलिए उसे प्रवाह में बाधा डालने वाली बातों से सावधान रहना है। ऐसी बाधक बातों में कुछ के बारे में कहा जा चुका है, लेकिन जो सबसे बड़ी बाधा तरुण के मार्ग में आती है, वह है प्रेम। प्रेम का अर्थ है स्त्री और पुरुष का पारस्परिक स्नेह, या शारीरिक और मानसिक लगाव। कहने को तो प्रेम को एक निराकार मानसिक लगाव कह दिया जाता है, लेकिन वह इतना निर्बल नहीं है। वह नदी जैसे प्रचंड प्रवाह को रोकने की भी सामर्थ्य रखता है। स्वच्छंद मनुष्य की सबसे भारी निर्बलता इसी प्रेम में निहित है। घुमक्कड़ के सारे जीवन में मनुष्य मात्र के साथ मित्रता और प्रेम व्याप्त है। इस जीवन-नियम का वह कहीं भी अपवाद नहीं मानता। स्नेह जहाँ पुरुष-पुरुष का है, वहाँ वह उसी निराकार सीमा में सीमित रह सकता है, लेकिन पुरुष और स्त्री का स्नेह कभी प्लातोनिक-प्रेम तक सीमित नहीं रह सकता। घुमक्कड़ अपनी यात्रा में घूमते-घामते किसी स्थान पर पहुँचता है। उसके स्निग्ध व्यवहार से उस अपरिचित स्थान के नर-नारियों का भी उसके साथ मधुर संबंध स्थापित हो जाता है। यदि घुमक्कड़ उस स्थान पर कुछ अधिक रह जाता है, और किसी अगलित वयस्का अतिकुरूपा स्त्री से ज्या्दा घनिष्ठता हो जाती है, तो निश्चिय ही वह साकार-प्रेम के रूप में परिणत होकर रहेगी। बहुतों ने पवित्र, निराकार, अभौतिक प्लातोनिक-प्रेम की बड़ी-बड़ी महिमा गाई है, और समझाने की कोशिश की है कि स्त्री-पुरुष का प्रेम सात्विक-तल तक सीमित रह सकता है। लेकिन यह व्याख्या आत्मसम्मोहन और परवंचना से अधिक महत्व नहीं रखती। यदि कोई यह कहे कि ऋण और धन विद्युत तरंग मिलकर प्रज्वलित नहीं होंगे, तो यह मानने की बात नहीं है।
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