यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
लेखनी और तूलिका
मानव-मस्तिष्क में जितनी बौद्धिक क्षमतायें होती है, उनके बारे में कितने ही लोग समझते हैं कि “ध्यानावस्थित तद्गतेन मन” से वह खुल जाती हैं। किंतु बात ऐसी नहीं है। मनुष्य के मन में जितनी कल्पनायें उठती हैं, यदि बाहरी दुनिया से कोई संबंध न हो, तो वह बिलकुल नहीं उठ सकतीं, वैसे ही जैसे कि फिल्म-भरा कैमरा शटर खोले बिना कुछ नहीं कर सकता। जो आदमी अंधा और बहरा है, व गूँगा भी होता है। यदि वह बचपन से ही अपनी ज्ञानेंद्रियों को खो चुका है, तो उसके मस्तिष्क की सारी क्षमता धरी रह जाती है, और वह जीवन-भर काठ का उल्लू बना रहता है। बाहरी दुनिया के दर्शन और मनन से मन की क्षमता को प्रेरणा मिलती है। क्षमता का भी महत्व है, यह मैं मानता हूँ, किंतु निरपेक्ष नहीं। हमारे महान कवियों में अश्वघोष तो घुमक्कड़ थे ही। वह साकेत (अयोध्या) में पैदा हुए, पाटलिपुत्र उनका विद्याक्षेत्र रहा और अंत में उन्होंने पुरुषपुर (पेशावर) को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। कविकुलगुरु कालिदास भी बहुत घूमे हुए थे। भारत से बाहर चाहे वह न गये हों, किंतु भारत भीतर तो अवश्य वह बहुत दूर तक पर्यटन किए हुए थे। हिमालय को “उत्तर दिशा में देवात्मा नगाधिराज” उन्होंने किसी से सुनकर नहीं कहा। हिमालय को उनकी आँखों ने देखा था, इसीलिए उसकी महिमा को वह समझ पाए थे। “अमुं पुर: पश्यमसि देवदारुं पुत्रीकृतोऽसौ वृषभध्वीजेन” में उन्होंने देवदारु को शंकर का पुत्र मानकर दुनिया के उस सुंदरतम वृक्ष की श्री की परख की। श्वेत हिमाच्छादित हिमालय और सदाहरित तुंग-शीर्ष देवदार प्राकृतिक सौंदर्य के मानदंड हैं, जिनको कालिदास घर में बैठे नहीं जान सकते थे। रघु की दिग्विजय-यात्रा के वर्णन में कालिदास ने जिन देशों में नाम दिये हैं, उनमें से कितने ही कालिदास के देखे हुए थे, और जो देखे नहीं थे, उनका उन्होंने किसी तरह अच्छा परिज्ञान प्राप्त किया था। कालिदास की काव्य-प्रतिभा में उनके देशाटन का कम महत्व नहीं रहा होगा। वाण - जिसके बारे में कहा गया “वाणोच्छिष्टंय जगत् सर्वं” और जिसकी कादंबरी की समता आज तक किसी ग्रंथ ने नहीं की - तो पूरा घुमक्कड़ था। कितने ही सालों तक नाना प्रकार के तीन दर्जन से अधिक कलाविदों को लिए वह भारत की परिक्रमा करता रहा। दंडी का अपने दशकुमारों की यात्राओं का वर्णन भी यही बतलाता है, कि चाहे वह काँची में पल्लव-राज-सभा के रत्न रहे हों, किंतु उन्होंने सारे भारत को देखा था। इस तरह और भी संस्कृत के कितने ही चोटी के कवियों के बारे में कहा जा सकता है। दार्शनिक तो अपने विद्यार्थी जीवन में भारत की प्रदक्षिणा करके रहते थे, और उनमें कोई-कोई कुमारजीव, गुणवर्मा आदि की तरह देश-देशांतरों का चक्कर लगाते थे।
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