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यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

पत्नी से प्रेम रहने पर सुविधा में पड़े घुमक्कड़ तरुण के मन में ख्याल आ सकता है - अखंड ब्रह्मचर्य के द्वारा सूर्यमंडल बेधकर ब्रह्म-लोक जीतने का मेरा मंसूबा नहीं, फिर ऐसी प्रिया पत्नी् को छोड़ने से क्या फायदा? इसका अर्थ हुआ - न छोड़ने में फायदा होगा। विशेष अवस्था में चतुष्पाद होना - स्त्री-पुरुष का साथ रहना - घुमक्कड़ी में भारी बाधा नहीं उपस्थि‍त करता, लेकिन मुश्किल है कि आप चतुष्पाद तक ही अपने को सीमित नहीं रख सकते, चतुष्पाद से षटपद्, अष्टपद और बहुपद तक पहुँच कर रहेंगे। हाँ, यदि घुमक्कड़ की पत्नी भी सौभाग्य से उन्हीं भावनाओं को रखती है, दोनों पुत्रैषणा से विरत हैं, तो मैं कहूँगा- “कोई पर्वाह नहीं, एक न शुद, दो शुद।” लेकिन अब एक ही जगह दो का बोझा होगा। साथ रहने पर भी दोनों को अपने पैरों पर चलना होगा, न कि एक दूसरे के कंधे पर। साथ ही यह भी निश्चय कर रखना होगा, कि यात्रा में आगे जाने पर कहीं यदि एक ने दूसरे के अग्रसर होने में बाधा डाली तो - “मन माने तो मेला, नहीं तो सबसे भला अकेला।” लेकिन ऐसा बहुत कम होगा, जब कि घुमक्कड़ होने योग्य व्यक्ति चतुष्पाद भी हो।

बंधु-बांधवों के स्नेह-बंधन के बारे में भी वही बात है। हजारों तरह की जिम्मे वारियों के बारे में इतना ही समझ लेना चाहिए, कि घुमक्कड़-पथ सबसे परे, सबसे ऊपर है। इसलिए -

निस्त्रैगुण्येक पथि विचरत: को विधि: को निषेध:” को फिर यहाँ दुहराना होगा।

बाहरी जंजालों के अतिरिक्त एक भीतरी भारी जंजाल है - मन की निर्बलता। आरंभ में घुमक्कड़ी पथ पर चलने की इच्छा रखनेवाले को अनजान होने से कुछ भय लगता है। आस्तिक होने पर तो यह भी मन में आता है -

का चिंता मम जीवने यदि हरिर्विश्वम्भरो गीयते।
विश्व का भरण करने वाला मौजूद है, तो जीवन की क्या चिंता?

कितने ही घुमक्कड़ों ने विश्वम्भर के बल पर अँधेरे में छलाँग मारी, लेकिन मेधावी और प्रथम श्रेणी के तरुणों में ऐसे कितने ही होंगे, जो विश्वंभर पर अंधा-धुंध विश्वास नहीं रखते। तो भी मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ, कि अँधेरे में छलाँग मारने से जरा भी भय नहीं खाना चाहिए। आदमी हर रोज ऐसी छलाँग मार रहा है। दिल्ली और कलकत्ता की सड़कों पर कितने आदमी हर साल मोटर और ट्राम के नीचे मरते हैं? उसे देखकर कहना ही होगा, कि अपने घर से सड़क पर निकलना अँधेरे में कूदना ही है। घर के भीतर ही क्या ठिकाना है? भूकम्प में हजारों बलिदान घर की छतें और दीवारें लेती हैं। रेल चढ़ने वाले रेल-दुर्घटनाओं के कारण क्या यात्रा करना छोड़ देते हैं?

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