यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
मैंने एक दिन आँख बचाकर अपना मंसूबा पूरा करना चाहा, दो या तीन मील का चक्कर लगाया। नौ वर्ष के बालक का एक बहुत छोटे गाँव से आकर एकदम बनारस की गलियों में घूमना भय की बात थी, इसमें संदेह नहीं, लेकिन मुझे उस समय नहीं मालूम था, कि घुमक्कड़ी का अंतर्हित बीज इस रूप में अपने प्रथम प्राकट्य को दिखला रहा है। अगली उड़ान जो बड़ी उड़ानों में प्रथम थी, चौदह वर्ष में हुई, यद्यपि अनन्य रूप से घुमक्कड़ धर्म की सेवा का सौभाग्य मुझे 16 वर्ष की उम्र से मिला। मैं अपने पाठकों को मना नहीं करता, यदि वह मेरा अनुकरण करें, किंतु मैं अपने तजुर्बे से उन्हें वंचित नहीं करना चाहता। कुछ बातें यदि पहले ही ठीक करली जायँ, तो आदमी के जीवन के बारह वर्ष का काम दो बरस में हो सकता है। मैं यह नहीं कहता कि दो वर्ष के काम के लिए बारह वर्ष घूमना बिलकुल बेकार है, किसी-किसी के लिए उसका भी महत्व हो सकता है, लेकिन सभी बातों पर विचार करने पर ठीक यही मालूम पड़ता है, कि घुमक्कड़ का संकल्प तो किसी आयु में पक्का कर लेना चाहिए, समय-समय पर सामने आते बंधनों को काटते रहना चाहिए, किंतु पूरी तैयारी के बाद ही घुमक्कड़ बनने के लिए निकल पड़ना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि मन को पहले रंग लेना चाहिए, शरीर पर रंग चढ़ाने में यदि थोड़ी देर हो तो उससे घबड़ाना नहीं चाहिए। ठीक है, मैं ऐसी भी सलाह नहीं देता, जैसी कि मुरादाबाद के एक सेठ की योजना में थी। उनकी बड़ी आराम की जिंदगी थी, गर्मियों में खस की टट्टी और पंखे के नीचे दुनिया का ताप क्या मालूम हो सकता था। लेकिन देखा-देखी 'योग' करने की साध लग गई थी। वह चाहते थे कि निकलकर दुनिया में बिचरें। उन्हों ने दस दरियाई नारियल के कमंडलु भी मँगवा लिए थे। कहते थे - धीरे-धीरे जब दस आदमी यहाँ आ जायँगे, तब हम बाहर निकलेंगे। न जाने कितने सालों के बाद मैं उन्हें मिला था। मेरे में उतना धैर्य नहीं था कि बाकी आठ आदमियों के आने की प्रतीक्षा करता। घुमक्कड़ की अधीरता को मैं पसंद करता हूँ। यह अधीरता ऐसी शक्ति है, जो मजबूत-से-मजबूत बंधनों को काटने में सहायक होती है।
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