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यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

बरसात का दिन है, वर्षा कई दिनों से छूटने का नाम नहीं ले रही है। घर के द्वार पर कीचड़ का ठिकाना नहीं है, जिसमें गोबर मिलकर और भी बुरी तरह सड़ रहा है और उसके भीतर पैर रखकर चलते रहने पर चार-छ दिन में अँगुलियों के पोर सड़ने लगते हैं, इसलिए गाँव के किसान ऊँचे-ऊँचे पौवे (खड़ाऊँ) पहनते हैं। वही पौवे जो हमारे यहाँ गँवारी चीज समझे जाते हैं, और नगर या गाँव के भद्र पुरुष भी उसे पहनना असभ्यता का चिह्न समझते हैं, किंतु जापान में गाँव ही नहीं तोक्यो जैसे महानगर में चलते पुरुष ही नहीं भद्रकुलीना महिलाओं के पैरों में शोभा देता है। वह पौवा लगाए सड़क पर खट-खट करती चली जाती हैं। वहाँ इसे कोई अभद्र चिह्न नहीं समझता। हाँ, तो ऐसी बदली के दिनों में घुमक्कड़ बनने की इच्छा रखने वाले तरुणों में बहुत कम होंगे, जो घर से बाहर निकलने की इच्छा रखते हों -कम-से-कम स्वेच्छा से तो वह बाहर नहीं जाना चाहेंगे। लेकिन ऐसी ही सप्ताह वाली बदली में गाँव के बाहर किसी वृक्ष के नीचे या पोखरे के भिंडे पर आप सिरकी वालों को अपनी सिरकी के भीतर बैठे देखेंगे। इस वर्षा-बूँदी में चार हाथ लंबी, तीन हाथ चौड़ी सिरकी के घरों में दो-तीन परिवार बैठे होंगे। उनको अपनी भैंस के चारे की चिंता बहुत नहीं तो थोड़ी होगी ही।

सिरकीवाले अधिकतर भैंस पसंद करते हैं, कोई-कोई गधा भी। राजपूताना और बुंदेलखंडी में घूमने वाले घुमक्कड़ लोहार ही ऐसे हैं, जो अपनी एक बैलिया गाड़ी रखते हैं। सिरकी वालों की भैंस दूध के लिए नहीं पाली जाती। मैंने तो उनके पास दूध देने वाली भैंस कभी नहीं देखी। वह प्राय: बहिला भैंस रखते हैं, भैंसा भी उनके पास कम ही देखा जाता है। बहिला भैंस पसंद करने का कारण उनका सस्तापन है। बरसात में चारे की उतनी कठिनाई नहीं होती, घास जहाँ-तहाँ उगी रहती है, जिसके चराने-काटने में किसान विरोध नहीं करते। किंतु भैंस को खुला तो नहीं छोड़ा जा सकता, कहीं किसान के खेत में चली जाय तो? खैर, सिरकीवाला चाहे अपनी भैंस, गधे, कुत्ते की परवाह न करे, किंतु उसे बीवी-बच्चों की तो परवाह करनी है - वह प्रथम-द्वितीय श्रेणी का घुमक्कड़ नहीं है, कि परिवार रखने को पाप समझे। कई दिन बदली लगी रहने पर उसे चिंता भी हो सकती है, क्योंकि उसके न बैंक की चेक-बही है, न घर या खेत है, न कोई दूसरी जायदाद ही, जिस पर कर्ज मिल सके। ईमानदार है या बेईमान, इसकी बात छोड़िए। ईमानदार होने पर भी ऐसे आदमी पर कौन विश्वास करके कर्ज देगा, जो आज यहाँ है तो कल दस कोस पर और पाँच महीने बाद युक्तप्रांत से निकलकर बंगाल में पहुँच जाता है। सिरकीवाले को तो रोज कुँआ खोदकर रोज पानी पीना है, इसलिए उसकी चिंता भी रोज-रोज की है। सिरकी में चावल-आटा रखने पर भी उसे ईंधन की चिंता रहती है। बरसात में सूखा ईंधन कहाँ से आए? घर तो नहीं कि सूखा कंडा रखा है। कहीं से सूखी डाली चुरा-छिपाकर तोड़ता है, तो चूल्हे में आग जलती है।

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