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यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

अंत में आगे चलने का निश्चय करके दोनों तिब्बत के भीतर घुसे। यद्यपि स्मृति ने अपने साथी को ठोक-पीटकर वहाँ तक पहुँचाया, तो भी वह उस धातु का नहीं बना था, जिसके कि स्मृतिज्ञान-कीर्ति थे। स्मृति संस्कृत के धुरंधर पंडित थे, लेकिन वह देख रहे थे कि तिब्बती भाषा जाने बिना उनका सारा गुण गोबर है। उन्होंने निश्चय किया, पहले तिब्बती भाषा पर अधिकार प्राप्त करना चाहिए। यह कोई मुश्किल बात न थी, बस सब-कुछ छोड़कर तिब्बती मानव-समाज में डूब जाने की आवश्यकता थी। उस वक्त तिब्बत में जहाँ-तहाँ संस्कृत के जानने वाले व्याक्ति भी मिलते थे, स्मृति ने उनका परिचय अपने लिए भारी विघ्न समझा। भारत आने वाले मार्ग के पास के गाँव डांग में उन्हें इसका डर लगा, वह ब्रह्मपुत्र पार और दो दिन के रास्ते पर तानक् चले गये। ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य में तानक् के लोग कैसे रहे होंगे, यह इसी से समझा जा सकता है कि आज भी वहाँ के लोग खेती पर नहीं अधिकतर मेषपालन पर गुजारा करते हैं और उनका अधिक समय भी स्थायी घरों में नहीं बल्कि काले तंबुओं में बीतता है। स्मृति एक फटा-पुराना चीथड़ा लपेटे, बड़ी गरीबी की हालत में तानक् पहुँचे। टूटी-फूटी बोली में मजूरी ढूँढ़ते हुए खाने-कपड़े पर किसी के यहाँ नौकर हो गये। स्मृति के मालिक मालकिन अधिक कठोर हृदय के थे, विशेषकर मालकिन तो फूटी आँखों नहीं देखना चाहती थीं कि स्मृति एक क्षण भी बिना काम के बैठें। स्मृति ने सब कष्ट सहते हुए कई साल तानक् में बिताए। तिब्बती भाषा को उससे भी अच्छा बोल सकते थे जैसा कि एक तिब्बती, साथ ही उन्होंने लुक-छिपकर अक्षर और पुस्तकों से भी परिचय प्राप्त कर लिया था। शायद स्मृति और भी कुछ साल अपनी भेड़ों और बकरियों को लिए एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते, परंतु इसी समय किसी तिब्बती विद्याप्रेमी को पता लगा। वह स्मृति को पकड़ ले गया। स्मृति को घुमक्कड़ी का चस्का लग गया था, और वह किसी एक खूँटे से बराबर के लिए बँध नहीं सकते थे। स्मृ्ति ने फिर अपनी मातृभूमि का मुँह नहीं देखा और नेपाल की सीमा से चीन की सीमा तक कुछ समय जहाँ-तहाँ ठहरते, शिष्यों को पढ़ाते और ग्रंथों का अनुवाद करते हुए सारा जीवन बिता दिया। स्मृति का बौद्ध-धर्म से अनुराग था। हर एक घुमक्कड़ का स्मृति से अनुराग होगा; फिर कैसे हो सकता है कि कोई व्यक्ति स्मृति के धर्म (बौद्ध धर्म) को अवहेलना की दृष्टि से देखे।

एक स्मृति नहीं हजारों बौद्ध-स्मृति एसिया के कोने-कोने में अपनी हड्डियों को छोड़कर अत्यंत निद्रा में विलीन हो गये। एसिया ही नहीं मकदूनिया, क्षुद्र-एसिया, मिश्र से लेकर बोर्नियो और फिलिपाइन के द्वीपों तक में उनकी पवित्र अस्थियाँ बिखरी पड़ी हैं। बौद्ध ही नहीं उस समय के ब्राह्मण-धर्मी भी कूप-मंडूक नहीं थे, वह भी जीवन के सबसे मूल्यवान वर्षों को विद्या और कला के अध्ययन में लगाकर बाहर निकल पड़ते थे।

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